Tuesday 28 June 2011

प्रदोष व्रत का महत्व




Pradosh Vrat ka Mahatva,

प्रदोष व्रत का महत्व

प्रदोष व्रत हर महीने में दो बार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी  को प्रदोष व्रत कहते हैं। यदि इन तिथियों को सोमवार होतो उसे सोम प्रदोष व्रत कहते हैं, यदि मंगल वार होतो उसे भौम प्रदोष व्रत कहते हैं और शनिवार होतो उसे शनि प्रदोष व्रत व्रत कहते हैं। विशेष कर सोमवार, मंगलवार एवं शनिवार के प्रदोष व्रत अत्याधिक प्रभावकारी माने गये हैं। साधारण तौर पर अलग-अलग जगह पर द्वाद्वशी और त्रयोदशी की तिथि को प्रदोष तिथि कहते हैं। इस दिन व्रत रखने का विधान हैं।

प्रदोष व्रत का महत्व कुछ इस प्रकार का बताया गया हैं कि यदि व्यक्ति को सभी तरह के जप, तप और नियम संयम के बाद भी यदि उसके गृहस्थ जीवन में दुःख, संकट, क्लेश आर्थिक परेशानि, पारिवारिक कलह, संतानहीनता या संतान के जन्म के बाद भी यदि नाना प्रकार के कष्ट विघ्न बाधाएं, रोजगार के साथ सांसारिक जीवन से परेशानिया खत्म नहीं हो रही हैं, तो उस व्यक्ति के लिए प्रति माह में पड़ने वाले प्रदोष व्रत पर जप, दान, व्रत इत्यादि पूण्य कार्य करना शुभ फलप्रद होता हैं।

ज्योतिष कि द्रष्टि से जो व्यक्ति चंद्रमा के कारण पीडित हो उसे वर्ष भर प्रदोष व्रतों पर चहे वह किसी भी वारको पडता हो उसे प्रदोष व्रत अवश्य करना चाहिये। प्रदोष व्रतों पर उपवास रखना, लोहा, तिल, काली उड़द, शकरकंद, मूली, कंबल, जूता और कोयला आदि दान करने से शनि का प्रकोप भी शांत हो जाता हैं, जिस्से व्यक्ति के रोग, व्याधि, दरिद्रता, घर कि अशांति, नौकरी या व्यापार में परेशानी आदि का स्वतः निवारण हो जाएगा।

भौम प्रदोष व्रत एवं शनि प्रदोष व्रत के दिन शिवजी, हनुमानजी, भैरव कि पूजा-अर्चना करना भी लाभप्रद होता हैं।

गुरुवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत विशेष कर पुत्र कामना हेतु या संतान के शुभ हेतु रखना उत्तम होता हैं। संतानहीन दंपत्तियों के लिए इस व्रत पर घरमें मिष्ठान या फल इत्यादि गाय को खिलाने से शीघ्र शुभ फलकी प्राप्ति होति हैं। संतान कि कामना हेतु 16 प्रदोष व्रत करने का विधान हैं, एवं संतान बाधा में शनि प्रदोष व्रत सबसे उत्तम मनागया हैं।

संतान कि कामना हेतु प्रदोष व्रत के दिन पति-पत्नी दोनो प्रातः स्नान इत्यादि नित्य कर्म से निवृत होकर शिव, पार्वती और गणेशजी कि एक साथमें आराधना कर किसी भी शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर जल भिषेक, पीपल के मूल में जल चढ़ाकर सारे दिन निर्जल रहने का विधान हैं।



रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-२

Ratn evm rango dwara roga nivaran bhag:2, gems or rango dwara rogm nivaran, ratna and colour dvara rog nivaran part :-2

रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-२ 

हमारे आस पास के माहोल मे इन रंगों के होने से ही हम अपने अंगों द्वारा स्पर्श, सूंघने, स्वाद, दृष्टि और आवाज का आभास प्राप्त करते हैं। इसी वजह से हम नाक से केवल सूंघ सकते हैं, देख नहीं सकते या स्वाद नहीं ले सकते। ऐसा इसलिए होता हैं क्योकि खुशबू और बदबू को केवल नाक ग्रहन कर स्कती हैं क्योकि वह हरे रंग से प्रभावित हैं एवं वह केवल हरे रंग को ही ग्रहण करती हैं, बाकी को नहीं कर सकती। इसी लिये हरे रंग को खुशबू और बदबू जेसी सूंघने कि शक्ति के साथ में संबंध होता हैं।

इसी प्रकार सही रोग का अनुसंधान कर सही रंगोका चुनाव कर व्यक्ति निश्चित लाभा उठा सकते हैं इस मे कोइ दो राइ नहीं हो सकती।

मनुष्य के शरीर मे उत्पन्न होने वाले त्रिदोष भी इसी प्रकार सात रंगों के कारण पैदा होते हैं। आयुर्वेद में वायु दोष वायु तत्व नीले और जामुनी रंग से उतपन्न होती हैं। पित्त अग्नि तत्व के लाल रंग से उतपन्न होता हैं। कफ जल तत्व के केसरी या नारंगी से उतपन्न होता हैं। पृथ्वी तत्व हरे रंग से उतपन्न होता हैं।

पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला हरा रंग बाकि सब रंगो में सबसे ठंडा होता है। इसी लिए हमे किसी पेड़ या हरे रंग छपरे के नीचे होने से हमे कम गरमी लगती हैं। शायद इसी अनुसंधान के से आजकल प्लस्टिक के हरें रंगके छपरे या प्लास्टिक प्लेट (ग्रीन इफेक्ट) वाली चद्दर कि बिक्री जोरो पर हैं।

इस लिये मानव शरीर को गरम-ठंडा रख कर और सही रंगों की पेहचान कर मानव शरीर में प्रवाहित कर दिया जाये तो व्यक्ति सदैव निरोग रेह सकता हैं। क्योकि जन शरीर में गरमी एवं ठंडी का संतुलन खराब होजाता हैं तभी शरीरमे त्रिदोष उत्पन्न होते हैं जिसे हम विस्तान में वायु, पित्त और कफ के नाम से जानते हैं। वायु, पित्त और कफ कि उत्पत्ति से हर छोटी बडी बिमारी उत्पन्न होना शुरु होजाती हैं चाहे वह मामिली शर्दी खासीं होया बडे से बडा कैंसर इत्यादि हो।

हमारे शरीर में जब गर्मी या ठंडी की अधिकता या कमी हो जाती है तो विपरीत रंगो या रत्नो के माध्यमों द्वारा रंगों के संतुलन से इसे ठीक किया जाता हैं।

क्योकि रंग हमें प्राप्त होते हैं रत्नों से। हर एक रत्न में रोग ठीक करने की क्षमता होती है। शरीर में जब रोग पैदा होते हैं तो वह रंग को लेकर और यह कमी पूरी करते हैं रत्न।  सदियों से आयुर्वेद में रत्नों का उपयोग भस्म के रूप में किया जाता रहा हैं  ज्योतिष में रोगों को ग्रहो से जोड कर उसे शांत करने हेतु रत्न धारण कर प्रयोग किया जाता हैं।  इसी लिये यह सारी क्रियाए महज रंगों का संतुलन शरीर में करने से ही संपन्न होती है।

ज्यादातर लोगो को गरमी में काला कपड़ा पहनने से अधिक गरमी महसूस होती हैं और सफेद कपड़ा पहनने से ठंडक महसूस होती हैं आपने भी अपने जीवन में कभी ना कभी यह जरुर महसुश किया होगा कि किसी रंग विशेष के कपडे या अन्य सामग्री से आपको लाभा हो रहा हैं या नुक्शान हो रहा हैं।

किसी विशेष रंग के कपडे पहनेते हि आपको ज्यादा गुस्सा आजाता हैं तो कभी किसी रंग के कपडे पहने होने पर गुस्से बहोत कम मात्रा में या नहीं के बराबर आता हैं यह प्रभाव तो आपने सहज में ही महसूस किया होगा।। यह सब खेल रंगो कि माय का हैं।


नोट:-
  • उपरोक्त सभी जानकारी हमारे निजी एवं हमारे द्वारा किये गये प्रयोगो एवं अनुशंधान के आधार पर दिगई हैं।
  • कृप्या किसी भी प्रकार के प्रयोग या रंग या रत्न का चुनाव करने से पूर्व विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले।
  • यदि कोइ व्यक्ति विशेषज्ञ कि सलाह नही लेकर उपरोक्त जानकारी के प्रयोग करता हैं तो उसके लभा या हानी उसकी स्वयं कि जिन्मेदारी होगी। इस्से के लिये कार्यालय के सदस्य या संस्थपक जिन्मेदार नहीं होंगे।
  • हम उपयोक्त लाभ का दावा नहीं कर रहे यह महज एक जानकारी प्रदान करेने हेतु इस ब्लोग पर उपलब्ध कराइ हैं।
  • रंगोका प्रभाव निश्चित हैं इसमे कोइ दो राय नहीं किन्तु रत्न एवं रंगो का चुनाव अन्य उसकि गुणवत्ता एवं सफाई पर निर्भर हैं अपितु विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले धन्यवाद।

रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-१

Ratn evm rango dwara roga nivaran bhag:1, gems or rango dwara rogm  nivaran, ratna and colour dvara rog nivaran part :-1

रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-१

हर रत्न का अपने रंग का अद्भुत एवं चमत्कारिक प्रभाव होता हैं जिस्से हमारे मानव शरीर से सभी प्रकार के रोग हेतु उपयुक्त रत्न का चुनाव कर लाभ प्राप्त किया जासकता हैं।

ब्रह्मांड में व्याप्त हर रंग इंद्रधनुष के सात रंगों के संयोग से संबंध रखता हैं, हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले लिखदिया था कि इंद्रधनुष के सात रंग सात ग्रहों के प्रतीक होते हैं, एवं इन रंगों का संबंध ब्रह्मांड के सात ग्रहो से होता हैं जो मनुष्य पर अपना निश्चित प्रभाव हर क्षण डालते हैं। इस बात को आज का उन्नत एवं आधुनिक विज्ञान भी इस बातकी पृष्टि करता हैं। ज्योतिष के द्रष्टि कोण से हर ग्रह का अपना अलग रंग व रत्न हैं।
हमारे लिये अपने जीवन को रोग मुक्त रखने हेतु इन सातो रंगो का निश्चित संतुलन रखना अति आवश्यक होता हैं। एवं यदि यह संतुलन बिगड जाये तो व्यक्ति को तरह-तरह के रोग होना प्रारंभ हो जाता हैं एवं उन रंगो को संतुलित करने हेतु रत्नों को माध्यम बनाकर उसे कायम रखकर हम कुछ बीमारियों में लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

इन रंगो को प्रिज्म में देखने पर वह अलग रंग का दिखता हैं। वास्तव में हर रंग जो हमे दिखाइ देता हैं जिसे हम - स्वेत-काला-लाल-हरा-पीला-भूरा इत्यादि सभी जो हमे द्रष्टि गोचर होते हैं वह रंग वास्तव में अलग रंग का होता हैं!

जेसे बादल का रंग देखने में हल्का भूरा या हल्का नीला प्रतित होता है, लेकिन यदि इन बादल को प्रिज्म के माध्यम से देखा जाए तो काला या हल्का भूरा दिखने वाला बादल असल में नारंगी रंग का होता हैं। सूर्य की रोशनी देख ने में सफेद या सुनहरी दिखती हैं लेकिन प्रिज्म से देखने से इसमें सात रंग दिखाइ देते हैं।

कोइ भी व्यक्ति रंगों के भेद को समज कर कौन सा रंग शरीर के किस हिस्से पर अपना प्रभावित रखता हैं, कौन रंग किस बीमारी को पैदा कर सकता हैं,

सात रंगो कि जानकारी इस प्रकार हैं।

सूर्य ग्रह के मुख्य रत्न माणिक्य (रुबी) से लाल रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
चंद्र ग्रह के मुख्य रत्न मोति से केसरी या नारंगी रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
मंगल ग्रह के मुख्य रत्न मूंगे से पीले रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
बुध ग्रह के मुख्य रत्न पन्ना से हरे रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
बृहस्पती (गुरु) ग्रह के मुख्य रत्न पीले पुखराज से नीले रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
शुक्र ग्रह के मुख्य रत्न हीरे से हल्के नीले(आसमानी) रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
शनि ग्रह के मुख्य रत्न निलम से जामुनी रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।

अब इन रंगो का पंचभूत तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के बारे में जाने और समज कर उनका प्रयोग कर लाभ प्राप्त कर सके।

जल तत्व:- केसरी या नारंगी एंव आसमानी रंग का संचालन करता हैं।
अग्नि तत्व:- लाल एवं पीले रंग का संचालन करता हैं।
वायु तत्व:- जामुनी रंग का संचालन करता हैं।
आकाश तत्व:- नीले रंग का संचालन करता हैं।
पृथ्वी तत्व:- हरे रंग का संचालन करता हैं।

मानव शरीर के साथ रंगो के भेद को जनते हैं। इन सबके भेदो को प्रिज्म द्वार अनुसंधान कर जानागया हैं।
आंख :- लाल रंग
श्वसन:- हरा रंग
स्पश:- जामुनी रंग
ध्वनि:- नीले रंग
स्वाद:- केसरी या नारंगी

मानव शरीर कि गरमी पीले एवं आसमानी रंग से प्रभावित होती हैं। त्वचा जामुनी रंग से प्रभावित होती हैं। नाक को देखने से नाक हरे प्रभावित होती हैं। जीभ को देखने से केसरी या नारंगी से प्रभावित होती दिखाइ देती हैं। कान को देख ने पर कान की नली नीले रंग कि ही दिखाई देती हैं।

(क्रमशः...........)

नोट:-

  • उपरोक्त सभी जानकारी हमारे निजी एवं हमारे द्वारा किये गये प्रयोगो एवं अनुशंधान के आधार पर दिगई हैं।

  • कृप्या किसी भी प्रकार के प्रयोग या रंग या रत्न का चुनाव करने से पूर्व विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले।

  • यदि कोइ व्यक्ति विशेषज्ञ कि सलाह नही लेकर उपरोक्त जानकारी के प्रयोग करता हैं तो उसके लभा या हानी उसकी स्वयं कि जिन्मेदारी होगी। इस्से के लिये कार्यालय के सदस्य या संस्थपक जिन्मेदार नहीं होंगे।

  • हम उपयोक्त लाभ का दावा नहीं कर रहे यह महज एक जानकारी प्रदान करेने हेतु इस ब्लोग पर उपलब्ध कराइ हैं।

  • रंगोका प्रभाव निश्चित हैं इसमे कोइ दो राय नहीं किन्तु रत्न एवं रंगो का चुनाव अन्य उसकि गुणवत्ता एवं सफाई पर निर्भर हैं अपितु विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले धन्यवाद।

ब्रह्मदेवकृत राम स्तुति

Brahm Dev Krut Ram Stuti,

ब्रह्मदेवकृत राम स्तुति
श्रीगणेशाय नमः ।
ब्रहोवाच

वन्दे देवं विष्णुमशेषस्थितिहेतुं त्वामध्यात्मज्ञानिभिरन्तर्ह्रदि भाव्यम् ।
हेयाहेयद्वंद्वविहीनं परमेकं सत्तामात्रं सर्वह्रदिस्थं दृशिरूपम् ॥ १ ॥

प्राणापानौ निश्चयबुद्ध्या ह्रदि रुद्‌ध्वा छित्त्वा सर्वसंशयबंधं विषयौघान् ।
पश्यंतीशं यं गतमोहा यतयस्तं वंदे रामं रत्‍नकिरीटं रविभासम् ॥ २ ॥

मायातीतं माधवमाद्यं जगदादिं मायाधीशं मोहविनाशं मुनिवंद्यम् ।
योगिध्येयं योगविधानं परिपूर्णं वंदे रामं रञ्जितलोकं रमणीयम् ॥ ३ ॥

भावाऽभावप्रत्ययहीनं भवमुख्यैर्भोगासक्तैरर्चितपदांबुजयुग्मम् ।
नित्यं शुद्धं बुद्धमनंतं प्रणवाख्यं वंदे रामं वीरमशेषासुरदावम् ॥ ४ ॥

त्वं मे नाथो नाथितकार्याखिलकारी मानातीतो माधवरूपोऽखिलधारी ।
भक्त्या गम्यो भाविरूपो भवहारी योगाभ्यासैर्भावितचेतःसहचारी ॥ ५ ॥

त्वामाद्यंतं लोकततीनां परमीशं लोकानां नो लौकिकमानैरधिगम्यम् ।
भक्तिश्रद्धाभावसमेतैर्भजनीयं वंदे रामं सुन्दरमिन्दीवरनीलम् ॥ ६ ॥

को वा ज्ञातुं त्वामतिमानं गतमानं मानासक्तो माधवशक्तो मुनिमान्यम् ।
वृन्दारण्ये वंदितवृन्दाकरवृन्दं वंदे रामं भवमुखवन्द्यं सुखकंदम् ॥ ७ ॥

नानाशास्त्रैर्वेदकदंबैः प्रतिपाद्यं नित्यानंदं निर्विषयज्ञानमनादिम् ।
मत्सेवार्थं मानुषभावं प्रतिपन्नं वंदे रामं मरकतवर्णं मथुरेशम् ॥ ८ ॥

श्रद्धायुक्तो यः पठतीमं स्तवमाद्यं ब्राह्मं ब्रह्मज्ञानविधानं भुवि मर्त्यः ।
रामं श्यामं कामितकामप्रदमीशं ध्यात्वा ध्याता पातकजालैर्विगतः स्यात् ॥ ९ ॥

॥ इति श्रीमदध्यात्मरामायणे युद्धकाण्डे ब्रह्मदेवकृतं रामस्तोत्रम् संपूर्णम् ॥

महादेव कृत रामस्तुति

mahadev krut ram stuti

महादेव कृत रामस्तुति
श्री महादेव उवाच ।

नमोऽस्तु रामाय सशक्तिकाय नीलोत्पलश्यामकोमलाय ।
किरीटहाराङ्गदभूषणाय सिंहासनस्थाय महाप्रभाय ॥ १ ॥

त्वमादिमध्यांतविहीन एकः स्रृजस्यवस्यत्सि च लोकजातम् ।
स्वमायया तेन न लिप्यसे त्वं यत्स्वे सुखेऽजस्त्ररतोऽनवद्यः ॥ २॥

लीलां विधत्से गुणसंवृतस्त्वं प्रसन्नभक्तानुविधानहेतोः ।
नानाऽवतारैः सुरमानुषाद्यैः प्रतीयसे ज्ञानिभिरेव नित्यम् ॥ ३ ॥

स्वांशेन लोकं सकलं विधाय तं बिभर्षि च त्वं तदधः फणीश्‍वरः ।
उपर्यधो भान्वनिलोड्डपौषधीन्प्रकर्षरूपोवसि नैकधा जगत् ॥४॥

त्वमिह देहभृतां शिखिरूपः पचसि भक्तमशेषमजस्त्रम् ।
पवनपंचकरूपसहायो जगदखंडमनेन बिभर्षि ॥ ५ ॥

चंद्रसूर्यशिखिमध्यगतं यत्तेज ईश चिदशेषतनूनाम् ।
प्राभवत्तनुभृतामिह धैर्यं शौर्यमायुरखिलं तव सत्त्वम् ॥ ६ ॥

त्वं विरिञ्चिशिवविष्णुविभेदात्कालकर्मशशिसूर्यविभागात् ।
वादिनां पृथगिवेश विभासि ब्रह्म निश्‍चितमनन्यदिहैकम् ॥ ७ ॥

मत्स्यादिरूपेण यथा त्वमेकः श्रुतौ पुराणेषु च लोकसिद्धः ।
तथैव सर्वं सदसद्विभागस्त्वमेव नान्यद्भवतो विभाति ॥ ८ ॥

यद्यत्समुत्पन्नमनन्तसृष्टावुत्पत्स्यते यच्च भवच्च यच्च ।
न दृश्यते स्थावरजंगमादौ त्वया विनाऽतः परतः परस्त्वम् ॥ ९ ॥

तत्त्वं न जानंति परात्मनस्ते जनाः समस्तास्तव माययातः ।
त्वद्भक्तसेवामलमानसानां विभाति तत्त्वं परमेकमैशम् ॥ १० ॥

ब्रह्मादयस्ते न विदुः स्वरूपं चिदात्मतत्त्वं बहिरर्थभावाः ।
ततो बुधस्त्वामिदमेव रूपं भक्त्या भजन्मुक्तिमुपैत्यदुःखः ॥ ११ ॥

अहं भवन्नामगुणैः कृतार्थो वसामि काश्यामनिशं भवान्या ।
मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं दिशामि मंत्रं तव राम नाम ॥ १२ ॥

इमं स्तवं नित्यमनन्यभक्त्या श्रृण्वन्ति गायंति लिखंति ये वै ।
ते सर्व्सौख्यं परमं च लब्ध्वा भवत्पदं यान्ति भवत्प्रसादात् ॥ १३ ॥

॥ इति श्रीमहादेवकृतस्तोत्र संपूर्णम् ॥

रामाष्टकम्

RamaShtakam, Ram Ashtakam, राम अष्टकम्

रामाष्टकम्

भजे विशेषसुन्दरं समस्तपापखण्डनम् ।
स्वभक्तचित्तरञ्जनं सदैव राममद्वयम् ॥ १ ॥

जटाकलापशोभितं समस्तपापनाशकम् ।
स्वभक्तभीतिभंजनं भजे ह राममद्वयम् ॥ २ ॥

निजस्वरूपबोधकं कृपाकरं भवापहम् ।
समं शिवं निरंजनं भजे ह राममद्वयम् ॥ ३ ॥

सदाप्रञ्चकल्पितं ह्यनामरूपवास्तवम् ।
निराकृतिं निरामयं भजे ह राममद्वयम् ॥ ४ ॥

निष्प्रपञ्चनिर्विकल्पनिर्मलं निरामयम् ॥
चिदेकरूपसंततं भजे ह राममद्वयम् ॥ ५ ॥

भवाब्धिपोतरूपकं ह्यशेषदेहकल्पितम् ।
गुणाकरं कृपाकरं भजे ह राममद्वयम् ॥ ६ ॥

महावाक्यबोधकैर्विराजमनवाक्पदैः ।
परब्रह्म व्यापकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ७ ॥

शिवप्रदं सुखप्रदं भवच्छिदं भ्रमापहम् ।
विराजमानदैशिकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ८ ॥

रामाष्टकं पठति यः सुकरं सुपुण्यं व्यासेन भाषितमिदं श्रृणुते मनुष्यः ।
विद्यां श्रियं विपुलसौख्यमनन्तकीर्ति सम्प्राप्य देहविलये लभते च मोक्षम् ॥ ९ ॥

॥ इति श्रीव्यासविरचितं रामाष्टकं संपूर्णम् ॥

जटायुकृत राम स्तोत्रम्

jatayu krut ram stotra
जटायुकृत राम स्तोत्रम्

श्रीगणेशाय नमः । जटायुरुवाच ।

अगणितगुणमप्रमेयमाद्यं सकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम् ।
उपरमपरमं परात्मभृतं सततमहं प्रणतोऽस्मि रामचन्द्रम् ॥ १ ॥

निरवधिसुखमिंदिराकटाक्षं क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखदिदुःखम् ।
नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं वरदमहं वरचापबाणहस्तम् ॥ २ ॥

त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं रविशतभासुरमीहितप्रदानम् ।
शरणदमनिशं सुरागमूले कृतनिलयं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥ ३ ॥

भवविपिनदवाग्निमधेयं भवमुखदैवतदैवतं दयालुम् ।
दनुजपतिसहस्त्रकोटिनाशं रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये ॥ ४ ॥

अविरतभवभावनातिदूरं भवविमुखैर्मुनिभिः सदैव दृश्यम् ।
भवजलधिसुतारणांघ्रिपोतं शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥ ५ ॥

गिरिशगिरिसुतमनोनिवासं गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम् ।
सुरवरदनुजेन्द्रसेवितांघ्रिं सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये ॥ ६ ॥

परधनपरदारवर्जितानां परगुणभूतिषु तुष्टमानसानाम् ।
परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं रघुवरमंबुजलोचनं प्रपद्ये ॥ ७ ॥

स्मितरुचिरविकासिताब्जमतिसुलभं सुरराजनीलनीलम् ।
सितजलरुहचारुनेत्रशोभं रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्रपद्ये ॥ ८ ॥

हरिकमलजशंभुरूपभेदात्त्वमहि विभासि गुणत्रयानुवृत्तः ।
रविरिव जल्पूरितोदपात्रेष्वमरपतिस्तुतिपात्रमीशमीडे ॥ ९ ॥

रतिपतिशतकोटिसुन्दराङ्ग शतपथगोचरभावनाविदूरम्।
यतिपतिह्रदये सदा विभांतं रघुपतिमार्तिहरं प्रभुं प्रपद्ये ॥ १० ॥

इत्येवं स्तुवतस्तस्य प्रसन्नोऽभूद्रघूत्तमः ।
उवाच गच्छ भद्रं ते मम विष्णोः परं पदम् ॥ ११ ॥

श्रृतोति य इदं स्तोत्रं लिखेद्वा नियतः पठेत् ।
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत् ॥ १२ ॥

इति राघवभाषितं तदा श्रुतवान् हर्षसमाकुलो द्विजः ।
रघुनन्दनसाम्यमास्थितः प्रययौ ब्रह्मसुपूजितं पदम् ॥ १३ ॥
॥ इति श्रीमदध्यात्मरामायणे आरण्यकांडे जटायुकृतरामस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

No comments:

Post a Comment