महात्मा श्री राजेन्द्रदास जी पूज्य बापू जी
भारतीय संस्कृति का प्रतीक "धोती"
मानव धर्म प्रसार के प्रवर्तक युगपुरुष,करुणामूर्ति श्री गंगा रामदास जी महाराज ने समाज को मानवतावाद का उपदेश देकर कुछ भी बनने से पहले मानव बनने की बात कही है|इसके साथ-साथ उनका दूसरा महावाक्य था भारतीय संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए|
श्री महाराज जी मानव धर्म प्रसार के लिए कहा करते थे की घर घर में आग लगी है कैसे बुझेगी?और दूसरा वाक्य होता था-"भारतीय संस्कृति मिट गयी है,सब अंग्रेज हो गए|"यह बात जब कोई पाश्चात्य वेश भूषा में दीखता था तो जरुर कहते थे-सब लोग पैंट पहनते हैं,धोती का दर्शन दुर्लभ हो गया है|धोती पहनने वाले जब मर जायेंगे तब धोती का दर्शन दुर्लभ हो जायेगा|"कोई भी सन्त महापुरुष जब भी कोई बात कहेंगे,उसमे अवश्य कोई न कोई रहस्य होगा|सन्त की सहज बात भी अनर्गल नहीं होती है|इससे भी ज्यादा स्पष्ट बात कहनी है तो कहा जा सकता है की ऋषियों मुनियों ने आपस में बैठ कर जो बतकही किया वही शास्त्र हो गया|श्री राम चरित मानस में महर्षि वशिष्ठ जी सन्त श्री भरतलाल जी को प्रमाण दे रहे हैं की---
समुझब करब कहब तुम्ह जोई|धर्म सार जग होई सोयी||
(रामचरितमानस)
कुल मिलाकर श्री महाराज जी ने भारतीय संस्कृति की चर्चा बड़ी ही दृढ़ता के साथ किया है और उस चर्चा में धोती के पहनावे की चर्चा जरुर करते थे |अब इस पर विचार किया जाय तो संस्कृति का मतलब पहले जानना होगा|संस्कृति,अर्थात संस्कार जो परम्परा से जो मिलें हों|जैसे हमारे ऋषियों ने सूत्र दिया-"मात्रिदेवोभव,पित्रिदेवोभव,आचार्यदेवोभव,अतिथिदेवोभव |"यह हमारे संस्कार हैं|संस्कार में और भी बहुत सी बातें आती हैं|खान-पान, रहन-सहन,वेश-भूषा,रीती-रिवाज इत्यादि|जब समाज संस्कार हिन् हो जायेगा तो संस्कृति का मिटना अवश्यम्भावी है|इसी बात को श्री मद्भागवत में कहा गया है-
कुलक्षये प्रणशयन्ति कुलधर्मा:समानता:|
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मो$भिभवत्युत ||(४०/९)
श्री रामचरितमानस में कहा गया है-
जिमी कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहीं|(९४/४)
जब कुल सद्धर्म अर्थात परम्परा से प्राप्त संस्कार नष्ट हो जायेगा तो अधर्म की उत्पत्ति होगी जिस अधर्म के परिणाम से पापाचरण होगा जो व्यक्ति और समाज के दुःख का कारण होगा|मानवीय गुणों के विकाश के लिए बुद्धि सात्विक होनी चाहिए और सात्विकी बुद्धि शुद्ध अंत:करण से होती है|अंत:करण की शुद्धि के लिए धर्म ही एकमात्र साधन है और धर्म व्यक्ति व समाज को संस्कार सम्पन्न बनता है जिससे समाज समृद्धि सुरक्षा और शान्ति पाता है|
मै इस सन्दर्भ में इतिहास की दो घटनाओं की तरफ आप लोगो का ध्यान आकर्षित करना चहुँगा|इतिहास प्रशिद्ध राजपुताना के चितौड़गढ़ की क्षत्राणियो द्वारा स्वीकार गया "जौहर"जिसमे १४ हजार राजपूतानियों ने चिता सजाकर आत्म बलिदान कर दिया|इसके पीछे घटना यह है की दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन खिलजी रूप सुन्दरी रानी पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौडगढ़ को घेर लिया था|अंत में अपने शील और मर्यादा को न बचते देख इन रानियों ने जौहर स्वीकार लिया|एक आदमी की कुत्सित लालसा ने कितना भयंकर नर संहार करवा दिया|यदि उसके अन्दर ऋषियों की संस्कृति "मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठ्वत"का संस्कार होता तो वह नृशंस कार्य न करता|
इतिहास की एक दूसरी घटना है-क्षत्रपति शिवाजी महाराज के सैनिको ने गढ़ जितने के बाद नबाब की शहजादी को कैद करके शिवाजी के पास ले आये|शिवाजी ने उस शहजादी के दर्शन के बाद माता जिजाबाई को याद करके सम्मान के साथ उसके परिवार को सौंप दिया था|
इन दोनों घटनाओं के अन्तर को समझे-अलाउद्दीन ने एक को पाने के लिए हजारों का संहार करवा दिया जबकि शिवाजी ने सहज प्राप्त शहजादी को माता के समान आदर देकर विदा कर दिया|यह अन्तर संस्कारों का था|अत:संस्कारों की रक्षा होनी चाहिए|शिवाजी महाराज को समर्थ गुरु रामदास जी व माता जिजाबाई ने सुसंस्कार वान बनाया था|यही है इस देश की परम्परा और संस्कृति जिसे श्री महाराज जी याद किया करते थे|भारतीय संस्कृति की याद दिलाने के लिए धोती एक लघु बिंदु है|संस्कृति बहुत विशाल है|
मनुष्य को जीवन में भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ प्रेम की भी आवश्यकता होती है|जिस घर,परिवार,समाज में प्रेम का अभाव है वहां जीवन अविश्वास,उद्विग्नता और कटुता से भरा है|इसीलिए किसी ने सूत्र दिया"प्रेम देवो भव"और "परस्पर देवो भव"|
प्रेम के बिना जीवन यंत्र के समान है जो चलता तो है परन्तु संवेदना नहीं होती है|यदि मनुष्य भी केवल यंत्रवत चलता जायेगा तो उसमे और मशीन में क्या अन्तर रह होगा?हमारी संस्कृति ने हमको बताया की माता,पिता,गुरु,अतिथि और दिन दुखियों की सेवा करना धर्म है|हमारी संस्कृति में संयुक्त परिवार की परम्परा,समाज व्यवस्था की परम्परा,मनुष्य को प्रत्येक दृष्टि से परिपूर्णता प्रदान करने के लिए है|आप जहां रहता हैं वहां प्रेम,सम्मान,और विश्वास पाना चाहते हैं|आप के पास रुपया,मकान सम्पति सब है लेकिन धिक्कार और घृणा हो तो जीवन नरक हो जायेगा|खास करके वृद्धावस्था में जब शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाय और उस समय आदर के साथ सेवा करने वाला पास नहीं हो तो कितना असहाय की भावना महसूस होगी|संयुक्त परिवार से लाभ यह है की वृद्ध जनों की अन्तिम दिनों में आदर मिलेगा तथा दादा दादी से बच्चों को शुद्ध प्रेम मिलेगा|जिस बचपन में शुद्ध आहार,प्यार और सुसंस्कार की त्रिवेणी है वही बचपन धन्य है|
आज के पाश्चात्य समाज की आपाधापी में ऊपर की बातें भूलती जा रही हैं|यदि आप अपने बच्चे को अंग्रेजी शिक्षा,अंग्रेजी खान-पान,अंग्रेजी भेष-भूषा का संस्कार देंगे तो उनके संस्कार भी अंग्रेजियत के होंगे|जहां कहा जाता है कि अमुक उम्र के बाद बच्चे मुक्त पंछी कि तरह स्वतंत्र हैं जहां चाहें उड़ें यह तो हमारे यहाँ पशुवों और पंछियों में भी देखा जाता है|शायद इसीलिए कहा गया है कि --
आहार,निद्रा भय मैथुनं,च,
सामान्यमेतत पशुभिर्नराणाम |
धर्मोह्रितेषाम अधिको विशेषे,
धर्मेणहीना पशुभि:समान:||
फिर मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है?आप अपने बच्चों से आदर सेवा और वफादारी चाहते हैं तो उन्हें भारतीय संस्कृति के संस्कारों से संस्कारित करना ही होगा|श्री महाराज जी का अवतार समाज को प्रत्येक दिशा से परिपूर्णता प्रदान करने के लिए ही हुआ था|भारतीय संस्कृति के रक्षा के साथ ही समाज को पूर्णता का अनुभव होगा|धोती उसी कड़ी का मरमठाहर है जिसे छूकर श्री महाराज जी समाज को झकझोर कर जगाने का प्रयास करते रहें हैं|धोती के साथ एक और भावना है पवित्रता की|श्री मद्भागवत में धर्म के चार चरण की चर्चा है-
तप:शौचं दया सत्यमिति,पादा कृते कृता:|(२४/१७/९)
अत:तप,पवित्रता,दया और सत्य धर्म के चार चरण हैं|श्री रामचरितमानस में कहा गया है-
प्रगत चारी पद धर्म के कलि महू एक प्रधान|(७/१०३)
किसी भी जीव को सुख प्राप्ति के लिए धर्माचरण अनिवार्य है|बिना धर्म के सुख असम्भव है|
"सुखी मीन सब एस रस अति अगाध जल माहीं|
यथा धर्म शीलन्ह के दिन सुख संयुत जाहीं||(३९/३)
जो धर्मात्मा हैं उनका जीवन सुखमय रहता है|धर्म के चार चरण की चर्चा श्री मद्भागवत तथा श्री रामचरितमानस दोनों ग्रंथों में है|इन चार चरणों में से शौच अर्थात पवित्रता एक चरण है|अर्थात बाह्यऔर अभ्यन्तर पवित्रता|सफाई और पवित्रता में भेद है|सफाई शरीर की होगी जबकि पवित्रता शरीर और आत्मा दोनों की होगी|यदि आप पैंट पहने हैं तो लघु शंका खड़े-खड़े करना होगा|उसी समय छीटें आपके कपड़ों पर पड़ेंगे|आप साफ दिखेंगे लेकिन शरीर की पवित्रता ख़त्म होगी|यदि धोती पहने हैं तो बैठकर लघुशंका कर सकते हैं,उसमे शारीरिक पवित्रता को बचाया जा सकता है|याद रखें,यदि ध्यान नहीं देंगे तो धोती पहनकर भी पवित्रता नहीं रख सकते|हाँ,यदि धोती वाला चाहेगा तो शारीरिक पवित्रता रख सकता है,जबकि पैंट वाला चाहकर भी पवित्रता नहीं रख सकता|यही बात शौच जाते समय भी होगी श्री महाराज जी ने अपने सद्गुरु भगवान के धाम में प्रवेश के लिए भारतीय परिवेश धोती और साड़ी को अनिवार्य बनाया है ताकि कम से कम यहाँ आकर कोई भी व्यक्ति इसके परिचय में आएगा और वर्तमान समय की आपाधापी में कुछ समय के लिए सोचेगा |श्री महाराज जी ने सम्पूर्ण मानवता का विचार करके ही धोती का संदेश दिया है|
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("तिलक रहस्य और महात्म्य")
हमारे पूजा-पाठ के विधान में सूत्र है की-"देवं भूत्वा देवं यजेत "अर्थात देव की पूजा करने से पहले स्वयं देव बनो|ठाकुर जी की पूजा करने से पहले पुजारी स्नानादि से निवृत होकर स्वयं तिलक चन्दन करेगा उसके बाद ठाकुर जी की पूजा के पात्र जिन्हें पारखत कहते हैं (शायद पार्षद के अपभ्रंश से पारखत शब्द बना हो)की पूजा करतें हैं तब उन्ही साधनों से भगवान की पूजा का विधान है|किसी अनुष्ठान में बाह्याभ्यन्तर सूचि के बाद बोला जाता है"भाले तिलकं कुर्यात|"तिलक ललाट पर करने का विधान है|वास्तव में ललाट पर तिलक उस व्यक्ति को नहीं बल्कि ललाट अर्थात त्रिकुटी के ऊपर विराजमान ज्योति स्वरूप ब्रह्म को तिलक लगाया जाने का भाव निहित है|दिव्य ग्रन्थ में गुरुनानक देव जी कहतें हैं-
तिरबेनी स्नान करी जब निर्मल ह्वै जाय |
तब जोती के दरस हो गगन महल में जाय ||
तिलक हमारे परम्परा का भी धोतक है|हम उपासना के किस विधा के अनुयायी हैं वैष्णव परम्परा में उर्ध्वपुण्ड का विधान है|शैव परम्परा के अनुयायी त्रिपुण्ड लगतें हैं |संत लोग कहते हैं की भगवान शिव का त्रिशूल वैष्णवों ने धारण किया तथा भगवान विष्णु के शार्ग धनुष को शैवो ने धारण किया|अर्ध्वपुण्ड धनुष जैसा ही होता है जबकि त्रिपुण्ड धनुष बाण का रूप लगता भी है|वैष्णव भगवान शिव को अपना आदर्श मानते हैं |कहा भी गया है-"वैष्णवानां यथाशंभू:|"
हमारे मानव धर्म के प्रसार की परम्परा तथा इसका मार्ग दर्शन और पहचान हमारे तिलक में समाहित हैं|रेफ-बिंदु तथा ऊपर ज्योति का स्वरूप है|योगी महापुरुष जी छ:चक्रों का वर्णन करते हैं उसमे अंतिम और छठवां त्रिकुटी चक्र है|इडा,पिंगला,और सुषुम्ना का मिलना जहां होता है वहीँ त्रिकुटी है|गुरुनानक देव जी कहतें हैं-
बाये स्वर में शशि रहै,दहिने सूर्य को जान|
मध्य में सुखमन जानिए,तहँ पर सूर्य को थान ||
भगवान शिव सुषुम्ना पर विराजमान है उनके मस्तक पर चन्द्र है यही चन्द्र रेफ है |और रेफ क्या है ?रेफ भगवान राम हैं और जहां भगवान राम हैं वहां श्री सीता जी अवश्य ही रहेंगी क्योकि-
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न|
बन्दऊँ सीताराम पद जिन्हहि परमप्रिय खिन्न||
(श्री रामचरितमानस)
श्री जानकी जी का स्वरूप क्या है?वह बिंदु स्वरूप हैं|
बिन्दु मातु श्री जानकी,रेफ पिता रघुनाथ|
बिज इसी को कहते हैं,जपते भोला नाथ||(दिव्यग्रंथ)
अर्थात हमारे यहाँ जो तिलक लगाया जाता है उसमे रेफ है,बिन्दु है तथा जोती है|यह हमारी उपासना की विचार धारा का परिचय देते हैं|हमारी उपासना सुरति शब्द योग की है|सुरति शब्द योग की विस्तृत जानकारी के लिए आश्रम द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तिका "सुरति शब्द योग"पढ़ें|सरे वाद विवाद का समाधान इसी में सम्भव है|यह सम्पूर्ण मानव जाती को समाधान देता है अत:हम उसे आदर देते हैं और अपने मस्तक पर रखते हैं|मानव धर्म प्रसार के तिलक का यही रहस्य है|इस तिलक को धारण करना अर्थात श्री सीताराम जी को धारण करना है|जो भी व्यक्ति भगवान को धारण करेगा उसका मंगल ही मंगल है|हमारी बुद्धि का निर्णय उस परिस्थिति में सही ही होगा जहां सत्य स्वरूप परमात्मा को स्थान दिया जायेगा|तिलक धारण करने से सात्विकता का प्रभाव होगा|जहां भगवान विराजमान हैं,वहां एनी कोई भी प्रकार का उपद्रव करने वाले तत्व आ भी नहीं सकते हैं|अत:प्रत्येक व्यक्ति को अपने अन्दर सात्विकता पाने के लिए तथा बुरे विचारों से दूर रहने के लिए तिलक लगाना अनिवार्य है|जो तिलक धारण करेगा उसके ऊपर तांत्रिक अभिचार,भुत-प्रेत,ग्रह-नक्षत्रों का दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा|तिलक लगाने का बड़ा महत्व है|
मानव धर्म के प्रत्येक अनुयायी को मानव धर्म का तिलक लगाना चाहिए|और अपने अपने घरों पर मानव धर्म का ध्वज अवश्य रखना चाहिए|
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("ध्वज दर्शन व महात्म्य")
श्री महाराज जी द्वारा मानव धर्म प्रसार संगठन के लिए ध्वज चिन्ह दिया गया उसके पीछे भुत ही विशाल रहस्य छिपा हुआ है|श्री महाराज जी के शब्दों में यह ध्वज चिन्ह स्वयं परमात्मा द्वारा ही श्री महाराज जी को बताया गया है|मानव धर्म प्रसार के ध्वज का रंग हल्के आसमानी नीले रंग का है जो धर्म का प्रतीक है
"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम -(महाभारत)
ऐसा शास्त्र वचन है,अर्थात धर्म को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता|श्री बाल्मीकि रामायण में भगवान श्री राम को विग्रहवान धर्म कहा गया है|"रामो विग्रहवान धर्म:|"भगवान राम के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
"राम अत्कर्य बुद्धि मन बानी"
अर्थात जैसे परब्रह्म श्री राम को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता उसी तरह धर्म भी शब्दातीत है,अनन्त है,जैसे आकाश अनन्त है|अत:आकाश के रंग को ही मानव धर्म के ध्वज का रंग दिया गया है|
ध्वज के भीतर पीले रंग का वृत न्याय का प्रतीक है|न्याय को एक आचार संहिता के तराजू पर तौला जाता है|हर समाज और राष्ट्र का अपना एक संविधान बना हुआ है|संविधान के अनुसार ही नागरिकों को रहना है|हमारे शास्त्र में भी मानव के लिए कुछ आचारसंहिताएँ हैं जिसके अंतर्गत रहकर ही मानव यह लोक और परलोक मंगलमय बना सकता है|श्री मद्भागवत गीता में कहा गया है की-
"य:शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:|
न स सिद्धिमवान्पोती न सुखं न परां गतिम||(२३/९६)"
अर्थात जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है,वह न सिद्धि को प्राप्त होता है,न परमगति को और न सुख को ही|इसीलिए न्याय के प्रतीक को एक वृत के रूप में लिया गया है|वृत का रंग पिला रखा गया है जो सुन्दरता का प्रतीक है|भगवान पीताम्बर धारी हैं|भगवान श्री राम के स्तुति में "पटपीत मानहु तड़ित रूचि शुची नौमी जनक सुतावरं "ऐसा वर्णन है|पिला रंग देने के पीछे भाव यह है की जो समाज न्यायप्रिय होगा,वह सुन्दर होगा|ध्वज के अन्दर स्वेट रंग का अर्थ चन्द्र एवं बिन्दु सत्य का प्रतीक है इस जगत का परम सत्य परमात्मा है|उस ब्रह्म का स्वरूप अर्ध चन्द्र एवं बिन्दु है|
अर्धचन्द्र ॐकार पर जान लेय जो कोय|
सत्य लोक को जाय फिर,आवागमन न होय
बिन्दु मातु श्री जानकी रेफ पिता रघुनाथ|
बीज इसी को कहत हैं जपते भोलानाथ|
(श्री नानक जी दिव्य ग्रन्थ से)
श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
एक क्षत्र एक मुकुट मणि सब बरनन पर जोउ|
तुलसी रघुबर नाम के वरन विराजत दोउ|
अर्ध चन्द्र रेफ है जबकि बिन्दु मकार है|और यही रेफ और बिन्दु इस सृष्टि का मूक है जो ब्रह्म का स्वरूप है और ब्रह्म ही परम सत्य है|अत:अर्ध चन्द्र और बिन्दु को सत्य के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है|
यह रेफ और बिन्दु यदि ॐकार हटा लिया जाय तो इसका उच्चारण ऊ मात्र रह जायेगा जो किसी भी वैदिक मन्त्र का प्राण है|दुनियां में प्रचलित सभी धर्म सम्प्रदायों में इस अर्ध चन्द्र और बिन्दु को स्वीकार किया गया है|हम सब लोग जानते हैं की इस्लाम का प्रतीक भी ऐसा ही है इसाई धर्म का क्रास भी इसी का रूप है सिख धर्म में गुरुद्वारों के शिखर पर यह चिन्ह (खंडा)लगा रहता है|विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ के पुरी स्थित मंदिर के ध्वज में तथा द्वारिकाधीश के मंदिर के ध्वज में यही चिन्ह अंकित है|
भगवान शिव का नाम चंद्रशेखर भी है जिसका अर्थ हुआ,इनके शिखर पर चन्द्र है जो अर्ध चन्द्र ही होता है|यही अर्ध चन्द्र और बिन्दु जैन धर्मावलम्बियों के मंदिरों,जिसे देरासर कहते हैं,में पूजा करने के विधान में स्वस्तिक चिन्ह तथा अर्ध चन्द्र और बिन्दु के चिन्ह द्वारा पूजा का प्रावधान है|जिसे वे शिद्ध शिला कहते हैं|जिव तीर्थंकर होकर उसी पर विराजता है|
मानव धर्म प्रसार के ध्वज में अर्ध चन्द्र और बिन्दु श्वेत रंग का है|योगी पुरुष की कुण्डलनी जब जग कर चक्रों का भेदन करके त्रिकुटी चक्र पर पहुंचती है उस समय का वर्णन गुरुनानक देव जी ने अपने दिव्य ग्रन्थ में इस प्रकार किया है-
दुई दल कमल रंग शशि कर|
रेफ बिन्दु को तापर डेरा||
शिव ब्रह्म विष्णु जपै राम नाम यह जान
चमके तेज अपार तहें को करी सकै बखान||
इस दिव्य वर्णन में रेफ और बिंदु का रंग शशि के समान श्वेत है|यही बीज है जो शाश्वत सत्य है|
आपने ध्वज के विशाल दर्शन के रहस्य को ऊपर पढ़ा|श्री महाराज जी का आग्रह रहता था की प्रत्येक मानव धर्म अनुयायी अपने घर पर मानव धर्म प्रसार का ध्वज अवश्य लगाये|मानव धर्म प्रसार का उद्देश्य ही है-दिन दुखी,निबलों बिकलों के सेवक बन संताप हरना|मान लीजिये किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे सहायता की आवश्यकता पड़े तो वह ध्वज देखकर आपसे सहायता मांगने आ सकता है|आपके द्वारा लगाया गया यह ध्वज आपके सेवा व्रत का प्रतीक है|यदि कोई सेवा की शुभेच्छा रखता हो और उसे सेवा करने का अवसर ही न मिले तो वह सेवा के लाभ से वंचित रह जायेगा |अत:मानव धर्म प्रसार का यह ध्वज प्रत्येक व्यक्ति को सेवा का अवसर भी प्रदान करता है|
आपने यह भी देखा की मानव धर्म प्रसार के ध्वज के रेफ (अर्ध चन्द्र)और बिंदु परब्रह्म का मूल है|यदि हमारे घरों पर यह ध्वज छत्रछाया बनकर विराजमान है तो किसी भी प्रकार के ग्रहों का प्रकोप और तांत्रिक अभिचार इत्यादि मैली विधाओं आदि से हमारी रक्षा करता है|जैसे आकाशीय बिजली आदि से बचने के लिए भवनों पर तडित चालक लगा देने से रक्षा होती है वैसे ही मानव धर्म के ध्वज को अपने घरों इत्यादि पर लगाने वालों का अमंगल और विपत्ति से रक्षा होती है तथा इस ध्वज को लगाने वाले व्यक्ति को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है|
(श्री महाराज जी की जय)