Tuesday 3 May 2011

भारतीय वेशभूषा धोती










                             (संकलन )
महात्मा श्री राजेन्द्रदास जी पूज्य बापू जी 
भारतीय संस्कृति का प्रतीक "धोती"
मानव धर्म प्रसार के प्रवर्तक युगपुरुष,करुणामूर्ति श्री गंगा रामदास जी महाराज ने समाज को मानवतावाद का उपदेश देकर कुछ भी बनने से पहले मानव बनने की बात कही है|इसके साथ-साथ उनका दूसरा महावाक्य था भारतीय संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए|
श्री महाराज जी मानव धर्म प्रसार के लिए कहा करते थे की घर घर में आग लगी है कैसे बुझेगी?और दूसरा वाक्य होता था-"भारतीय संस्कृति मिट गयी है,सब अंग्रेज हो गए|"यह बात जब कोई पाश्चात्य वेश भूषा में दीखता था तो जरुर कहते थे-सब लोग पैंट पहनते हैं,धोती का दर्शन दुर्लभ हो गया है|धोती पहनने वाले जब मर जायेंगे तब धोती का दर्शन दुर्लभ हो जायेगा|"कोई भी सन्त महापुरुष जब भी कोई बात कहेंगे,उसमे अवश्य कोई न कोई रहस्य होगा|सन्त की सहज बात भी अनर्गल नहीं होती है|इससे भी ज्यादा स्पष्ट बात कहनी है तो कहा जा सकता है की ऋषियों मुनियों ने आपस में बैठ कर जो बतकही किया वही शास्त्र हो गया|श्री राम चरित मानस में महर्षि वशिष्ठ जी सन्त श्री भरतलाल जी को प्रमाण दे रहे हैं की---
समुझब करब कहब तुम्ह जोई|धर्म सार जग होई सोयी||
                                                                               (रामचरितमानस)
कुल मिलाकर श्री महाराज जी ने भारतीय संस्कृति की चर्चा बड़ी ही दृढ़ता के साथ किया है और उस चर्चा में धोती के पहनावे की चर्चा जरुर करते थे |अब इस पर विचार किया जाय तो संस्कृति का मतलब पहले जानना होगा|संस्कृति,अर्थात संस्कार जो परम्परा से जो मिलें हों|जैसे हमारे ऋषियों ने सूत्र दिया-"मात्रिदेवोभव,पित्रिदेवोभव,आचार्यदेवोभव,अतिथिदेवोभव |"यह हमारे संस्कार हैं|संस्कार में और भी बहुत सी बातें आती हैं|खान-पान, रहन-सहन,वेश-भूषा,रीती-रिवाज इत्यादि|जब समाज संस्कार हिन् हो जायेगा तो संस्कृति का मिटना अवश्यम्भावी है|इसी बात को श्री मद्भागवत में कहा गया है-
कुलक्षये प्रणशयन्ति कुलधर्मा:समानता:|
     धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मो$भिभवत्युत ||(४०/९)
श्री रामचरितमानस में कहा गया है-
         जिमी कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहीं|(९४/४)
जब कुल सद्धर्म अर्थात परम्परा से प्राप्त संस्कार नष्ट हो जायेगा तो अधर्म की उत्पत्ति होगी जिस अधर्म के परिणाम से पापाचरण होगा जो व्यक्ति और समाज के दुःख का कारण होगा|मानवीय गुणों के विकाश के लिए बुद्धि सात्विक होनी चाहिए और सात्विकी बुद्धि शुद्ध अंत:करण से होती है|अंत:करण की शुद्धि के लिए धर्म ही एकमात्र साधन है और धर्म व्यक्ति व समाज को संस्कार सम्पन्न बनता है जिससे समाज समृद्धि सुरक्षा और शान्ति पाता है|
मै इस सन्दर्भ में इतिहास की दो घटनाओं की तरफ आप लोगो का ध्यान आकर्षित करना चहुँगा|इतिहास प्रशिद्ध राजपुताना के चितौड़गढ़ की क्षत्राणियो द्वारा स्वीकार गया "जौहर"जिसमे १४ हजार राजपूतानियों ने चिता सजाकर आत्म बलिदान कर दिया|इसके पीछे घटना यह है की दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन खिलजी रूप सुन्दरी रानी पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौडगढ़ को घेर लिया था|अंत में अपने शील और मर्यादा को न बचते देख इन रानियों ने जौहर स्वीकार लिया|एक आदमी की कुत्सित लालसा ने कितना भयंकर नर संहार करवा दिया|यदि उसके अन्दर ऋषियों की संस्कृति "मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठ्वत"का संस्कार होता तो वह नृशंस कार्य न करता|
इतिहास की एक दूसरी घटना है-क्षत्रपति शिवाजी महाराज के सैनिको ने गढ़ जितने के बाद नबाब की शहजादी को कैद करके शिवाजी के पास ले आये|शिवाजी ने उस शहजादी के दर्शन के बाद माता जिजाबाई को याद करके सम्मान के साथ उसके परिवार को सौंप दिया था|
इन दोनों घटनाओं के अन्तर को समझे-अलाउद्दीन ने एक को पाने के लिए हजारों का संहार करवा दिया जबकि शिवाजी ने सहज प्राप्त शहजादी को माता के समान आदर देकर विदा कर दिया|यह अन्तर संस्कारों का था|अत:संस्कारों की रक्षा होनी चाहिए|शिवाजी महाराज को समर्थ गुरु रामदास जी व माता जिजाबाई ने सुसंस्कार वान बनाया था|यही है इस देश की परम्परा और संस्कृति जिसे श्री महाराज जी याद किया करते थे|भारतीय संस्कृति की याद दिलाने के लिए धोती एक लघु बिंदु है|संस्कृति बहुत विशाल है|
मनुष्य को जीवन में भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ प्रेम की भी आवश्यकता होती है|जिस घर,परिवार,समाज में प्रेम का अभाव है वहां जीवन अविश्वास,उद्विग्नता और कटुता से भरा है|इसीलिए किसी ने सूत्र दिया"प्रेम देवो भव"और "परस्पर देवो भव"|
प्रेम के बिना जीवन यंत्र के समान है जो चलता तो है परन्तु संवेदना नहीं होती है|यदि मनुष्य भी केवल यंत्रवत चलता जायेगा तो उसमे और मशीन में क्या अन्तर रह होगा?हमारी संस्कृति ने हमको बताया की माता,पिता,गुरु,अतिथि और दिन दुखियों की सेवा करना धर्म है|हमारी संस्कृति में संयुक्त परिवार की परम्परा,समाज व्यवस्था की परम्परा,मनुष्य को प्रत्येक दृष्टि से परिपूर्णता प्रदान करने के लिए है|आप जहां रहता हैं वहां प्रेम,सम्मान,और विश्वास पाना चाहते हैं|आप के पास रुपया,मकान सम्पति सब है लेकिन धिक्कार और घृणा हो तो जीवन नरक हो जायेगा|खास करके वृद्धावस्था में जब शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाय और उस समय आदर के साथ सेवा करने वाला पास नहीं हो तो कितना असहाय की भावना महसूस होगी|संयुक्त परिवार से लाभ यह है की वृद्ध जनों की अन्तिम दिनों में आदर मिलेगा तथा दादा दादी से बच्चों को शुद्ध प्रेम मिलेगा|जिस बचपन में शुद्ध आहार,प्यार और सुसंस्कार की त्रिवेणी है वही बचपन धन्य है|
आज के पाश्चात्य समाज की आपाधापी में ऊपर की बातें भूलती जा रही हैं|यदि आप अपने बच्चे को अंग्रेजी शिक्षा,अंग्रेजी खान-पान,अंग्रेजी भेष-भूषा का संस्कार देंगे तो उनके संस्कार भी अंग्रेजियत के होंगे|जहां कहा जाता है कि अमुक उम्र के बाद बच्चे मुक्त पंछी कि तरह स्वतंत्र हैं जहां चाहें उड़ें यह तो हमारे यहाँ पशुवों और पंछियों में भी देखा जाता है|शायद इसीलिए कहा गया है कि --
आहार,निद्रा भय मैथुनं,च,
                                       सामान्यमेतत पशुभिर्नराणाम |
धर्मोह्रितेषाम अधिको विशेषे,
                                       धर्मेणहीना पशुभि:समान:||
फिर मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है?आप अपने बच्चों से आदर सेवा और वफादारी चाहते हैं तो उन्हें भारतीय संस्कृति के संस्कारों से संस्कारित करना ही होगा|श्री महाराज जी का अवतार समाज को प्रत्येक दिशा से परिपूर्णता प्रदान करने के लिए ही हुआ था|भारतीय संस्कृति के रक्षा के साथ ही समाज को पूर्णता का अनुभव होगा|धोती उसी कड़ी का मरमठाहर है जिसे छूकर श्री महाराज जी समाज को झकझोर कर जगाने का प्रयास करते रहें हैं|धोती के साथ एक और भावना है पवित्रता की|श्री मद्भागवत में धर्म के चार चरण की चर्चा है-
तप:शौचं दया सत्यमिति,पादा कृते कृता:|(२४/१७/९)
अत:तप,पवित्रता,दया और सत्य धर्म के चार चरण हैं|श्री रामचरितमानस में कहा गया है-
प्रगत चारी पद धर्म के कलि महू एक प्रधान|(७/१०३)
किसी भी जीव को सुख प्राप्ति के लिए धर्माचरण अनिवार्य है|बिना धर्म के सुख असम्भव है|
"सुखी मीन सब एस रस अति अगाध जल माहीं|
यथा धर्म शीलन्ह के दिन सुख संयुत जाहीं||(३९/३)
जो धर्मात्मा हैं उनका जीवन सुखमय रहता है|धर्म के चार चरण की चर्चा श्री मद्भागवत तथा श्री रामचरितमानस दोनों ग्रंथों में है|इन चार चरणों में से शौच अर्थात पवित्रता एक चरण है|अर्थात बाह्यऔर अभ्यन्तर पवित्रता|सफाई और पवित्रता में भेद है|सफाई शरीर की होगी जबकि पवित्रता शरीर और आत्मा दोनों की होगी|यदि आप पैंट पहने हैं तो लघु शंका खड़े-खड़े करना होगा|उसी समय छीटें आपके कपड़ों पर पड़ेंगे|आप साफ दिखेंगे लेकिन शरीर की पवित्रता ख़त्म होगी|यदि धोती पहने हैं तो बैठकर लघुशंका कर सकते हैं,उसमे शारीरिक पवित्रता को बचाया जा सकता है|याद रखें,यदि ध्यान नहीं देंगे तो धोती पहनकर भी पवित्रता नहीं रख सकते|हाँ,यदि धोती वाला चाहेगा तो शारीरिक पवित्रता रख सकता है,जबकि पैंट वाला चाहकर भी पवित्रता नहीं रख सकता|यही बात शौच जाते समय भी होगी श्री महाराज जी ने अपने सद्गुरु भगवान के धाम में प्रवेश के लिए भारतीय परिवेश धोती और साड़ी को अनिवार्य बनाया है ताकि कम से कम यहाँ आकर कोई भी व्यक्ति इसके परिचय में आएगा और वर्तमान समय की आपाधापी में कुछ समय के लिए सोचेगा |श्री महाराज जी ने सम्पूर्ण मानवता का विचार करके ही धोती का संदेश दिया है|
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                            ("तिलक रहस्य और महात्म्य")
हमारे पूजा-पाठ के विधान में सूत्र है की-"देवं भूत्वा देवं यजेत "अर्थात देव की पूजा करने से पहले स्वयं देव बनो|ठाकुर जी की पूजा करने से पहले पुजारी स्नानादि से निवृत होकर स्वयं तिलक चन्दन करेगा उसके बाद ठाकुर जी की पूजा के पात्र जिन्हें पारखत कहते हैं (शायद पार्षद के अपभ्रंश से पारखत शब्द बना हो)की पूजा करतें हैं तब उन्ही साधनों से भगवान की पूजा का विधान है|किसी अनुष्ठान में बाह्याभ्यन्तर सूचि के बाद बोला जाता है"भाले तिलकं कुर्यात|"तिलक ललाट पर करने का विधान है|वास्तव में ललाट पर तिलक उस व्यक्ति को नहीं बल्कि ललाट अर्थात त्रिकुटी के ऊपर विराजमान ज्योति स्वरूप ब्रह्म को तिलक लगाया जाने का भाव निहित है|दिव्य ग्रन्थ में गुरुनानक देव जी कहतें हैं-
तिरबेनी स्नान करी जब निर्मल ह्वै जाय |
तब जोती के दरस हो गगन महल में जाय ||
तिलक हमारे परम्परा का भी धोतक है|हम उपासना के किस विधा के अनुयायी हैं वैष्णव परम्परा में उर्ध्वपुण्ड का विधान है|शैव परम्परा के अनुयायी त्रिपुण्ड लगतें हैं |संत लोग कहते हैं की भगवान शिव का त्रिशूल वैष्णवों ने धारण किया तथा भगवान विष्णु के शार्ग धनुष को शैवो ने धारण किया|अर्ध्वपुण्ड धनुष जैसा ही होता है जबकि त्रिपुण्ड धनुष बाण का रूप लगता भी है|वैष्णव भगवान शिव को अपना आदर्श मानते हैं |कहा भी गया है-"वैष्णवानां यथाशंभू:|"   
हमारे मानव धर्म के प्रसार की परम्परा तथा इसका मार्ग दर्शन और पहचान हमारे तिलक में समाहित हैं|रेफ-बिंदु तथा ऊपर ज्योति का स्वरूप है|योगी महापुरुष जी छ:चक्रों का वर्णन करते हैं उसमे अंतिम और छठवां त्रिकुटी चक्र है|इडा,पिंगला,और सुषुम्ना का मिलना जहां होता है वहीँ त्रिकुटी है|गुरुनानक देव जी कहतें हैं-
बाये स्वर में शशि रहै,दहिने सूर्य को जान|
मध्य में सुखमन जानिए,तहँ पर सूर्य को थान ||
भगवान शिव सुषुम्ना पर विराजमान है उनके मस्तक पर चन्द्र है यही चन्द्र रेफ है |और रेफ क्या है ?रेफ भगवान राम हैं और जहां भगवान राम हैं वहां श्री सीता जी अवश्य ही रहेंगी क्योकि- 
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न|
बन्दऊँ सीताराम पद जिन्हहि परमप्रिय खिन्न||
                                                          (श्री रामचरितमानस)
श्री जानकी जी का स्वरूप क्या है?वह बिंदु स्वरूप हैं|
बिन्दु मातु श्री जानकी,रेफ पिता रघुनाथ|
बिज इसी को कहते हैं,जपते भोला नाथ||(दिव्यग्रंथ)
अर्थात हमारे यहाँ जो तिलक लगाया जाता है उसमे रेफ है,बिन्दु है तथा जोती है|यह हमारी उपासना की विचार धारा का परिचय देते हैं|हमारी उपासना सुरति शब्द योग की है|सुरति शब्द योग की विस्तृत जानकारी के लिए आश्रम द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तिका "सुरति शब्द योग"पढ़ें|सरे वाद विवाद का समाधान इसी में सम्भव है|यह सम्पूर्ण मानव जाती को समाधान देता है अत:हम उसे आदर देते हैं और अपने मस्तक पर रखते हैं|मानव धर्म प्रसार के तिलक का यही रहस्य है|इस तिलक को धारण करना अर्थात श्री सीताराम जी को धारण करना है|जो भी व्यक्ति भगवान को धारण करेगा उसका मंगल ही मंगल है|हमारी बुद्धि का निर्णय उस परिस्थिति में सही ही होगा जहां सत्य स्वरूप परमात्मा को स्थान दिया जायेगा|तिलक धारण करने से सात्विकता का प्रभाव होगा|जहां भगवान विराजमान हैं,वहां एनी कोई भी प्रकार का उपद्रव करने वाले तत्व आ भी नहीं सकते हैं|अत:प्रत्येक व्यक्ति को अपने अन्दर सात्विकता पाने के लिए तथा बुरे विचारों से दूर रहने के लिए तिलक लगाना अनिवार्य है|जो तिलक धारण करेगा उसके ऊपर तांत्रिक अभिचार,भुत-प्रेत,ग्रह-नक्षत्रों का दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा|तिलक लगाने का बड़ा महत्व है|
मानव धर्म के प्रत्येक अनुयायी को मानव धर्म का तिलक लगाना चाहिए|और अपने अपने घरों पर मानव धर्म का ध्वज अवश्य रखना चाहिए|
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                               ("ध्वज दर्शन व महात्म्य")
श्री महाराज जी द्वारा मानव धर्म प्रसार संगठन के लिए ध्वज चिन्ह दिया गया उसके पीछे भुत ही विशाल रहस्य छिपा हुआ है|श्री महाराज जी के शब्दों में यह ध्वज चिन्ह स्वयं परमात्मा द्वारा ही श्री महाराज जी को बताया गया है|मानव धर्म प्रसार के ध्वज का रंग हल्के आसमानी नीले रंग का है जो धर्म का प्रतीक है 
"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम -(महाभारत)
ऐसा शास्त्र वचन है,अर्थात धर्म को शब्दों में बांधा नहीं जा सकता|श्री बाल्मीकि रामायण में भगवान श्री राम को विग्रहवान धर्म कहा गया है|"रामो विग्रहवान धर्म:|"भगवान राम के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
"राम अत्कर्य बुद्धि मन बानी"
अर्थात जैसे परब्रह्म श्री राम को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता उसी तरह धर्म भी शब्दातीत है,अनन्त है,जैसे आकाश अनन्त है|अत:आकाश के रंग को ही मानव धर्म के ध्वज का रंग दिया गया है|
ध्वज के भीतर पीले रंग का वृत न्याय का प्रतीक है|न्याय को एक आचार संहिता के तराजू पर तौला जाता है|हर समाज और राष्ट्र का अपना एक संविधान बना हुआ है|संविधान के अनुसार ही नागरिकों को रहना है|हमारे शास्त्र में भी मानव के लिए कुछ आचारसंहिताएँ हैं जिसके अंतर्गत रहकर ही मानव यह लोक और परलोक मंगलमय बना सकता है|श्री मद्भागवत गीता में कहा गया है की-
"य:शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:|
न स सिद्धिमवान्पोती न सुखं न परां गतिम||(२३/९६)"
अर्थात जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है,वह न सिद्धि को प्राप्त होता है,न परमगति को और न सुख को ही|इसीलिए न्याय के प्रतीक को एक वृत के रूप में लिया गया है|वृत का रंग पिला रखा गया है जो सुन्दरता का प्रतीक है|भगवान पीताम्बर धारी हैं|भगवान श्री राम के स्तुति में "पटपीत मानहु तड़ित रूचि शुची नौमी जनक सुतावरं "ऐसा वर्णन है|पिला रंग देने के पीछे भाव यह है की जो समाज न्यायप्रिय होगा,वह सुन्दर होगा|ध्वज के अन्दर स्वेट रंग का अर्थ चन्द्र एवं बिन्दु सत्य का प्रतीक है इस जगत का परम सत्य परमात्मा है|उस ब्रह्म का स्वरूप अर्ध चन्द्र एवं बिन्दु है|
                  अर्धचन्द्र ॐकार पर जान लेय जो कोय|
                   सत्य लोक को जाय फिर,आवागमन न होय 
                 बिन्दु मातु श्री जानकी रेफ पिता रघुनाथ|
                   बीज इसी को कहत हैं जपते भोलानाथ|
                                                    (श्री नानक जी दिव्य ग्रन्थ से)
श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
एक क्षत्र एक मुकुट मणि सब बरनन पर जोउ|
तुलसी रघुबर नाम के वरन विराजत दोउ|
अर्ध चन्द्र रेफ है जबकि बिन्दु मकार है|और यही रेफ और बिन्दु इस सृष्टि का मूक है जो ब्रह्म का स्वरूप है और ब्रह्म ही परम सत्य है|अत:अर्ध चन्द्र और बिन्दु को सत्य के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है|
यह रेफ और बिन्दु यदि ॐकार हटा लिया जाय तो इसका उच्चारण ऊ मात्र रह जायेगा जो किसी भी वैदिक मन्त्र का प्राण है|दुनियां में प्रचलित सभी धर्म सम्प्रदायों में इस अर्ध चन्द्र और बिन्दु को स्वीकार किया गया है|हम सब लोग जानते हैं की इस्लाम का प्रतीक भी ऐसा ही है इसाई धर्म का क्रास भी इसी का रूप है सिख धर्म में गुरुद्वारों के शिखर पर यह चिन्ह (खंडा)लगा रहता है|विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ के पुरी स्थित मंदिर के ध्वज में तथा द्वारिकाधीश के मंदिर के ध्वज में यही चिन्ह अंकित है|
भगवान शिव का नाम चंद्रशेखर भी है जिसका अर्थ हुआ,इनके शिखर पर चन्द्र है जो अर्ध चन्द्र ही होता है|यही अर्ध चन्द्र और बिन्दु जैन धर्मावलम्बियों के मंदिरों,जिसे देरासर कहते हैं,में पूजा करने के विधान में स्वस्तिक चिन्ह तथा अर्ध चन्द्र और बिन्दु के चिन्ह द्वारा पूजा का प्रावधान है|जिसे वे शिद्ध शिला कहते हैं|जिव तीर्थंकर होकर उसी पर विराजता है|
मानव धर्म प्रसार के ध्वज में अर्ध चन्द्र और बिन्दु श्वेत रंग का है|योगी पुरुष की कुण्डलनी जब जग कर चक्रों का भेदन करके त्रिकुटी चक्र पर पहुंचती है उस समय का वर्णन गुरुनानक देव जी ने अपने दिव्य ग्रन्थ में इस प्रकार किया है-
दुई दल कमल रंग शशि कर|
रेफ बिन्दु को तापर डेरा|| 
शिव ब्रह्म विष्णु जपै राम नाम यह जान 
चमके तेज अपार तहें को करी सकै बखान||
इस दिव्य वर्णन में रेफ और बिंदु का रंग शशि के समान श्वेत है|यही बीज है जो शाश्वत सत्य है|
आपने ध्वज के विशाल दर्शन के रहस्य को ऊपर पढ़ा|श्री महाराज जी का आग्रह रहता था की प्रत्येक मानव धर्म अनुयायी अपने घर पर मानव धर्म प्रसार का ध्वज अवश्य लगाये|मानव धर्म प्रसार का उद्देश्य ही है-दिन दुखी,निबलों बिकलों के सेवक बन संताप हरना|मान लीजिये किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे सहायता की आवश्यकता पड़े तो वह ध्वज देखकर आपसे सहायता मांगने आ सकता है|आपके द्वारा लगाया गया यह ध्वज आपके सेवा व्रत का प्रतीक है|यदि कोई सेवा की शुभेच्छा रखता हो और उसे सेवा करने का अवसर ही न मिले तो वह सेवा के लाभ से वंचित रह जायेगा |अत:मानव धर्म प्रसार का यह ध्वज प्रत्येक व्यक्ति को सेवा का अवसर भी प्रदान करता है|
आपने यह भी देखा की मानव धर्म प्रसार के ध्वज के रेफ (अर्ध चन्द्र)और बिंदु परब्रह्म का मूल है|यदि हमारे घरों पर यह ध्वज छत्रछाया बनकर विराजमान है तो किसी भी प्रकार के ग्रहों का प्रकोप और तांत्रिक अभिचार इत्यादि मैली विधाओं आदि से हमारी रक्षा करता है|जैसे आकाशीय बिजली आदि से बचने के लिए भवनों पर तडित चालक लगा देने से रक्षा होती है वैसे ही मानव धर्म के ध्वज को अपने घरों इत्यादि पर लगाने वालों का अमंगल और विपत्ति से रक्षा होती है तथा इस ध्वज को लगाने वाले व्यक्ति को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है|

(श्री महाराज जी की जय) 

Sunday 1 May 2011

||आरती स्तुति||

श्री गंगा आश्रम बयेपुर देवकली,गाजीपुर(०५४४८,२९०१४०४)

            ||दैनिक प्रार्थना||
वह शक्ति हमे दो दया निधे ,
                              कर्तव्य मार्ग पर डट जावें|
पर सेवा पर उपकार में हम ,
                                   जग जीवन सफल बना जावें||
हम दीन दुखी निबलों विकलों के ,
                                          सेवक बन संताप हरें|
जो हैं अटके भूले भटके ,
                              उनको तारे खुद तर जावें||
छल,दंभ,द्वेष,पाखंड,झूठ ,
                                  अन्याय से निशदिन दूर रहें|
जीवन हो शुद्ध सरल अपना ,
                                   शुची प्रेम सुधारस बरसावें||
निज आन मान मर्यादा का ,
                                   पभु ध्यान रहे शुभ ज्ञान रहे|
जिस देश में हमने जन्म लिया ,
                                        बलिदान उसी पर हो जावें||
||श्री महाराज जी की जय||
                                   ||मानव धर्म प्रसार की जय||
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||श्री गुरु देव जी की आरती||

आरती सतगुरु देव नमामि|
                                   पार ब्रह्म प्रभु अन्तर्यामी||
अगुण अपर अलख अविनाशी|
                                       अचल विमल प्रभु सब उरवासी||
निर्गुण निर्विकार सुखराशी|
                                   एक अरूप आलेख अनामी||
                                                                     ||आरती0|| 
वचन किरण तम मोह विनाशक|
                                         ज्ञान सूर्य माया के शासक||
दिव्य दृष्टि के परम प्रकाशक|
                                      ब्रह्मादिक सुर सेव्य नमामि||
                                                                           ||आरती०||
महिमा नेति नेति श्रुति गावें|
                                     नित्य निरंजन सब बतलावें||
शेष शारदा पार न पावें|
                             जय सच्चिदानन्द अभिरामी||
                                                                  ||आरती०||
जब तक कृपा न प्रभु तुम करते|
                                        विधि हरि क्या भाव से तर सकते||
असि विचारि गुरु भक्ति जो करते| 
                                            मिलते राम उन्हें सुख धामी||
                                                                      ||आरती०||
गुरुवर चरण कमल की छाया|
                                     करती दूर ताप त्रय माया||
जब तक पूर्ण न होती दाया|
                                   मिलते नहीं गरुण के गामी||
                                                                      ||आरती०||
भक्ति ज्ञान वैराग्य नियम के|
                                      रूप सकल इन्द्रिय संयम के||
भूषण सम दम पंथ सुयम के|
                                     श्रोत्रिय ब्रह्म निष्ठ मम स्वामी||
                                                                       ||आरती०||
जीवन धन मंजुल निज जन के|
                                       अंकुश मद मतंग जन-मन के||
शुची पथ परमारथ पथिकन के|
                                       एक रस आनन्द रूप नमामि||
आरती सद्गुरु देव नमामि|
                                   पार ब्रह्म प्रभु अन्तर्यामी||
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               ||संध्या आरती||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं|
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं||
                      कन्दर्प अगणित अमित छवि नव  नील नीरद सुन्दरम|
                   पटपीत मानहु तडित रूचि-शुची निमी जनक सुतावरम||
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारू उदार अंग विभूषणम|
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर दुषणं||
                  भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दलन दुष्ट निकंदनम|
                   रघुनन्द आनन्द कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम ||
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम|
मम हृदय कुंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनम||
                   जय जनक नंदिनी जगत वन्दनी जन आनन्द श्री जानकी|
                   रघुवीर नयन चकोर चन्दिनी बल्लभाप्रिय प्राण की||
तव कंज पद मकरंद स्वादित योगीजन मन अलिकिये|
करी प्राण गत तन आन हिय निर्वान सुख आनत हिये||
                   सुख खानी मंगल दानी अस जिय जानी शरण जो जात है|
                 तव नाथ सब सुख साथ करी तेहि हाथ रीझी विकात है||
ब्रह्मादी शिव सनकादि सुरपति आदि निज मुख भाषही|
तव कृपा नयन कटाक्ष चितवनि दिवस निशि अभिलाषही||
                   तनु पे तुम्हहि बिहाय जडमति आन मानस देवहिं|
                   हत भाग्य सुरतरु त्याग करी अनुराग रेडहि सेवहिं||
यह आस रघुबर दास की सुखराशी पूरण कीजिए |
निज चरण कमल सनेह जनक विदेहजा वर दीजिए||
                          अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो वर मांगहुं |
                          जेहि जोनी जन्महूँ कर्मवस् तह राम पद अनुरागहुं||
मनु जाही राचेउ मिलही सो वर सहज सुन्दर सांवरो |
करुणा निधान सुजान शिलु सनेहू जानत रावरो||
                 एही भांति गौरी आशीष सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली|
                 तुलसी भवानिहि पूजी पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चलीं ||
                    ||सोरठा||
जानी गौरी अनुकूल,सिय हिंय हरषु न जाइ कही|
                          मंजुल मंगल मूल,वाम अंग फरकन लगे||
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                                     ||श्री सद्गुरुवे नम:||
                             ||गुरु महिमा||
                                    (दोहा)
श्री गुरु चरण सरोज रज,वन्दित हौं कर जोरी|
                           विघ्न मिटैं प्रगटें विभव,होय विमल मति मोरी||
गुरु को कीजै दण्डवत,कोटि-कोटि परणाम|
                     कीट न जानै भृंग को,गुरु करले आप समान||
जेहि खोजत ब्रह्मा थके,सुर नर मुनि अरु देव|
                               कह कबीर सुन साधवा,कर सतगुरु की सेव||
गुरु को सिर पर राखिये,चलिए आज्ञा मांही|
                               कह कबीर ता दास को,तिन लोक डर नाही||
गुरु मानुष कर जानते,चरणामृत को पान|
                             ते नर नरकै जायेंगे,जन्म-जन्म ह्वै श्वान ||
मै अपराधी जन्म का,नख शिख भरा विकार |
                            तुम दाता दुःख भंजना,मेरी करो सम्हार||
भक्ति ज्ञान मोहि दीजिए,गुरु देवन के देव|
                               और कछु नहीं चाहिए,निशि दिन तुम्हरी सेव||
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागों पांय|
                             बलिहारी गुरु आपकी,गोविन्द दियो बताय||
श्री गुरु महिमा को कहे,अति ही उंच्च मुकाम|
                              ताते गुरु पद को करौ,बार-बार परणाम||
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                            गुरु महिमा 
                                 (श्लोक)
गुरुर्ब्रह्मा,गुरुर्विष्णु,गुरुर्देवो महेश्वर:|
                  गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:||
वन्दे बोध मयं नित्यं गुरुं शंकर रूपीणम|
                                यमाश्रीतोही वक्रो$पि चन्द्र:सर्वत्र वान्धते||
अखंड मण्डलाकारम व्याप्तं येन चराचरम |
                               तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवै नम:||
ध्यांमुलमगुरोमुर्ती:पुजामुल्यम गुरो:पदम्|
                            मन्त्र मुलं गुरोर्वाक्यं मोक्ष मुलं गुरो:कृपा||
ब्रह्मानन्दम परमसुखदं केवलं ज्ञान मूर्तिम|
                        द्व्नदातितं गगन सदृशम तत्वमस्यादी लक्ष्यम||
एकं नित्यं विमलम चलं सर्वधीं साक्षी भूतम|
                                भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरुं तं नमामि||
सीतानाथ समारम्भाम रामानन्दार्य मध्यमाम 
                              अस्मदाचार्य पर्यन्ताम वन्दे गुरु परम्पराम ||
श्री सद्गुरु भगवान की जय 
                                   बाबा रघुनाथ दास जी की जय 
बाबा जगन्नाथ दास जी की जय 
                                      बाबा बेनी माधव दास जी की जय 
सद्गुरु श्री परमहंस महाराज जी की जय (बाबा राममंगल दास जी)
                        श्री महाराज जी की जय (बाबा गंगा रामदास जी)
सब सन्तन भक्तन की जय 
                                      जय जय सीता राम 
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                                  (दोहा)
मोसम दिन न दिनहित,तुम समान रघुबीर|
अस विचारि रघुवंश मनी,हरहु विषम भवभीर||
                   कमिहिं नारी पियारी जिमी,लोभिहि प्रिय जिमी दाम|
                   तिमी रघुनाथ निरन्तर,प्रिय लागहु मोहि राम||
प्रनत पाल रघुवंश मणि,करुणा सिन्धु-खरारी|
गए शरण प्रभु राखिहैं,सब अपराध विसारि||
                    श्रवन सुयश सुनी आयहु,प्रभु भंजन भव भीर|
                     त्राहि-त्राहि आरतिहरण,शरण सुखद रघुबीर||
अर्थ न धर्म न काम रूचि,गति न चहहूँ निर्वान| 
जन्म-जन्म रति राम पद,यह वरदान न आन||
                         बार-बार वर मांगहूँ,हरषि देहु श्री रंग|
                          पद सरोज अनपायनी,भक्ति सदा सत्संग||
बरनी उमा पति राम गुण,हरषि गए कैलाश|
तब प्रभु कपिन्ह दिवायेऊँ,सब विधि सुखप्रद वास||
                          एक-मंद मै मोह वश,कुटिल हृदय अज्ञान|
                            पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ,दिनबन्धु भगवान|
विनती करि मुनि नाइ सिर,कह कर जोरी बहोरि|
चरण सरोरुह नाथ जनी,कबहूँ तजै मति मोरी||
                         नहीं विद्या नहीं बाहू बल,नहीं खर्चन को दाम|
                          मो सम पतित पतंग की,तुम पति राखहु राम||
एक छत्र एक मुकुट मणि,सब बरनन पर जोउ|
तुलसी रघुबर नाम के,वरण विराजत दोऊ||
                            कोटि कल्प काशी बसे,मथुरा कल्प हजार|
                             एक निमिष सरयू बसे,तुले न तुलसी दास||
राम जी नगरिया राम की,bse सरयू के तीर|
अचल राज महाराज की,चौकी हनुमत बीर||
                            कहाँ कहौं छवि आज की,भले विराजे नाथ|
                            तुलसी मस्तक जब नवै,धनुष बाण लेव हाथ||
कित मुरली कित चन्द्रिका,कित गोपियन के साथ|
  अपने जन के कारणे,श्री कृष्ण भये रघुनाथ||
                            अवध धाम धामादी पति,औ तारनपति राम|
                            सकल शिद्धि पति जानकी,दासन्ह पति हनुमान||
कर गहि धनुष चढ़ाइयो,चकित भये सब भूप|
मगन भई श्री जानकी,देख राम छवि रूप||
                             राम वाम दिसि जानकी,लखन दाहिनी ओर|
                             ध्यान सकल कल्याण मय,सुर तरु तुलसी तोर||
नील सरोरुह नील मणि,नील निरधर श्याम|
लाजही तन शोभा निरखि,कोटि कोटि सत्काम|| 
                             अस प्रभु दिनबन्धु हरी,कारण रहित दयाल| 
                             तुलसीदास सठ ताहि भजु,छाडी कपट जंजाल|| 
गुरु मूर्ति मुख चन्द्रमा,सेवक नयन चकोर|
अष्ट पहर निरखत रहौ,श्री गुरु चरण की ओर||
                              श्री गुरु महिमा को कहे,अतिहि उच्च मुकाम|
                              ताते गुरु पद को करौं,बार बार परनाम||
चलो सखी वहां जाइये,जहां बसे ब्रजराज|
गोरस बेचत हरी मिलैं,एक पंथ दो काज||
                             ब्रज चौरासी कोस में,चार धाम निज धाम|
                             बृन्दावन और मधुपुरी,बरसाने नंदग्राम||
बृन्दावन सो वन नहीं,नन्द ग्राम सो ग्राम|
वंशी वट अस वट नहीं,राम कृष्ण अस नाम||
                             राधा तू बड भगिनी,कौन तपस्या किन|
                             तिन लोक तारन तरन,सो तोरे आधीन||
कोटि न तीरथ कामना,कोटि न रास विलास|
रजधानी रघुनाथ की,गावै तुलसी दास|| 
                                आपन दारुण दीनता,सबही कहौ सर नाई|
                                बिन देखे रघुनाथ पद,जिय की जरनी न जाई||
एक घडी आधी घडी,आधी में पुनि आध|
तुलसी संगत साधू की,हरै कोटि अपराध||

सियावर राम चन्द्र जी की जय 
                             श्री अयोध्या राम जी लला जी की जय 
श्री पवनसुत हनुमान जी की जय 
                               श्री उमापति महादेव जी की जय 
श्री रमापति रामचंद्र जी की जय 
                                श्री वृन्दावन कृष्ण बलदाऊ जी की जय|
श्री वनितासुत गरुण देव जी की जय 
                                  बोलो भाई सब सन्तन की जय 
श्री गुरु देव भगवान की जय 
                                  संध्या सयन आरती की जय 
जय जय सीता राम 
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               (श्लोक)
नीलाम्बुज श्यामल कोमलाडगं,सीता समारोपित वाम भागम|
पाणौ महासायक चारू चापं,नमामि रामं रघुवंश नाथम||
भवाब्धि पोतं भरताग्रजं तम,भक्ति प्रियं भानुकुल:प्रदीपम| 
भुतत्रिनाथं भूवनादिपत्यम,भजामि रामं भवरोग वैद्धम||
लोकभीरामं रणरंग धीरम,राजीव नेत्रं रघुवंश नाथम|
कारुण्य रूपं करुनाकरं तम,श्री रामचन्द्र्म शरणं प्रपधे||
सखेति यत्वा प्रसभं  यदुक्तं,हे;कृष्ण,हे;यादव,हे;सखेति|
अजानतां महिमानं तवेधं,मया प्रमादात प्रणयेन वापि||
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव|
त्वमेव विधा द्रवीणं त्वमेव,त्वमेव सर्वं मम देव देव:||

शांताकारम भुजग शयनम,पद्म नाभं सुरेशम |
विश्वाधारं गगन सदृशं,मेघवर्णम शुभांगम||
लक्ष्मीकान्तं कमल नयनं ,योगभिर्ध्यानगम्यम|
वन्दे विष्णुं भव भय हरं,सर्व लोकैक नाथम ||
                
                    अच्युतं केशवं श्री राम नारायणम,
                                          श्री कृष्ण दामोदरं श्री वासुदेवं हरिम|
                     श्रीधरं माधवं गोपिका बल्लभम,
                                           श्री जानकी नायकं श्री रामचन्द्रं भजे||
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                                     (अथ श्री गंगाष्टकम)
कठिन कराल कलि काल को प्रभाव देखि,
                          दिन हीन मन अति व्याकुल दुखारी है|
काम क्रोध,लोभ,मद,मोह में प्रलिप्त मन,
                                       विषयी,विषादी भीरु काहिल कुविचारी है||
सत्य,न्याय,धर्म का जो पावन है पंथ चारू,
                                        ताहि छांडी पापी मन पातक-पुजारी है|
सत-सत भाषौ कछु भेद न बनाई राखौ,
                                 बाबा गंगा राम दास आश बस तुम्हारी है||
भंग गंग धार जाको चरण पखारत है,
                                  परम पुनीत अति पावन तपस्थली है|
सत्य-न्याय-धर्म की त्रिवेणी को प्रयाग जहां,
                                    सद्ध:फल देत चहुदिशी चर्चा ये चली है|
सकृत अवगाहन नसावत है पाप पुंज,
                                     धूलि जात जन्म जन्मान्तर की मली है||
सुकवि विचारी कहैं मानिये प्रतीति भली,
                                      ब्येपुर देवकली गाँव देव लोक गली है|
सत्य के समान धर्म दुसरो धरा पै नहीं,
                                    आगम निगम और पुराण सब गायें हैं||
तुलसी,कबीर,गुरुनानक प्रभृति संत,
                                     सत्य ही की महिमा बखानी न अघाएँ हैं|
सत्य ही स्वरूप परमात्मा कौ आत्मा कौ,
                                     सत्य ही है सार सद्गुरून बताये हैं||
सत्य ही के काज सन्त गंगादास महाराज,
                                     लोकहित लागी मानव धर्म को चलाये हैं||
कबहूँ तौ सेवा का अवसर मिलैगो नेकु,
                                      ऋद्धि-सिद्धि दासी ह्वै पसारे खड़ी हाथ हैं|
विधि के बनाये जेते वैभव हैं वसुंधरा पै,
                                    तेऊ अनुग्रहित ह्वै नवाए खड़े माथ हैं||
बंदी छोड़ साहेब समर्थ गंगा दास बाबा,
                               सुख,दुःख भूली सपनेहूँ फटकें न जाके पास हैं||
दिनन को दुःख देखि परम दुखारी भये,
                                 बाबा गंगा रामदास दासन के दास हैं|
देशकाल,समयातीत व्यापक प्रभाव वान,
                                     जाहिर जहान अति नेक सत्कर्म हैं||
मानव-सेवा सर्वोपरी साधना तपस्या जहाँ,
                                      बीज मंत्र जहाँ सत्य,न्याय और धर्म है|
अदभुत अनंत सन्त बाबा गंगा रामदास,
                                   इसकी प्रतिष्ठा किये यामे कछु मर्म है|
यधपि असंख्य धर्म व्याप्त है धरा पै लेकिन,
                                   धर्मो की धुरी सिर्फ एक मानव धर्म है||
जातिवाद धर्मवाद,ज्ञान और कर्मवाद,
                                   वाद के संवाद में विवाद बढ्यो भरी है|
ऊँच-नीच भेद-भाव आत्मा में करै घाव,
                                    दावँ पर लगी है सारी मानवता दुखारी है||
राग-राग में समाने दूर अपनेहूँ पराने हैं,
                                    यह छुआछुत का बुखार भरी महामारी है|
औषधि मात्र एक मानव धर्म का रसायन है,
                                    सत गारी बाबा गंगा दास ने निकारी है||
पापाचार,दुराचार,हिंसा और व्यभिचार,
                                    कण-कण में व्याप्त संतप्त धरा धाम है|
सत्य,न्याय,धर्म हैं लुकाने सद्ग्रंथन में,
                               जन-जन में व्याप्त मद,मोह,लोभ काम है||
बहरी आडम्बर हैं धर्म के पर्याय बने,
                                न्याय का तो नाम आज खुद बदनाम है|
ऐसे में उबारे तो उबारे सिर्फ मानव धर्म,
                                     जामे सम्पृक्त गंगा दास जू को नाम है||
भौतिक सुख-सम्पदा की चाह नहीं मन में है,
                                       स्वर्ग अपवर्गहू की चिंता न सताती है|
नश्वर शरीर त्रिबिध तापहू की चिंता व्यर्थ ,
                               सार्थक इस जग में सिर्फ सेवा ही लखाती है||
सत्य,न्याय,धर्म में सुरुचि बढ़ें भांति-भांति,
                                 मान लिया मानव-धर्म जीवन की थाती है|
होकर प्रसन्न वर दीजै गंगा दास बाबा,
                                  होती रहे सेवा,जब तक साँस आती जाती है|
              ||श्री महाराज जी की जय||
               (इति श्री गंगाष्टकम)
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                                        (अरज)  
विसरायो न सद्गुरु हमार सुधिया| 
                                                विसरायो न ---------
काम,क्रोध,मद,मोह,लोभ,मद,
                                   शांत करो टूटे टटिया|
                                                 विसरायो न -------------
द्वैत छुडाओ,कपट मिटाओ,
                                   ठीक होय चित की वृतिया|
                                                 विसरायो न -------------
सुरती शब्द में लागी रहै हरी,
                                   दर्शन होवै दिन रतिया|
                                                 विसरायो न ----------------
ज्योति प्रकाश दशालय पावो,
                                    निर्गुण निराधार गतिया|
                                                 विसरायो न ------------
मुक्ति भक्ति मई जियतै पावो,
                                     आवन छूती जाय हटिया|
                                                  विसरायो न -----------
बिनु सद्गुरु के पार होय को, 
                                     हरी माया संग में खटिया|
                                                   विसरायो न ----------
राम सहाय की अरज यही तव,
                                      चरण कमल रहे मन सटिया| 
                                                     विसरायो न ------------------
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पूज्य श्री महाराज जी के उपदेश वचन
१)परमात्मा अहंकार ही खाते हैं|
२)परमात्मा अँधा बहरा नहीं है|
३)झूठ बोलने वाला कभी आगे नहीं बढ़ सकता है|
४)जो दूसरों को सुख पहुंचाते हैं परमात्मा उसे ही सुख देते हैं|
५)परोपकारी धर्मात्मा बिना साधन तप के भी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है|
६)कुछ भी बनने से पहले आप मानव बनो|
७)सत्य न्याय धर्म की स्थापना हेतु आप का सहयोग अपेक्षित है|
ॐ शांति:शांति:शांति:

मानव धर्म प्रसार के सदस्यों के लिए प्रतिज्ञायें-
१)मै दैनिक जीवन में कार्य का प्रारम्भ एवं अंत प्रार्थना से करूँगा|
२)सत्य द्वारा "स्थानीय न्याय"की स्थापना तथा सेवा एवं परोपकार ही जीवन का उद्देश्य होगा|
३)संस्था के प्रति आभारी तथा संगठन हेतु तन,मन,धन से तैयार रहूँगा|
४)कुछ भी बनने से पहले मानव बनूँगा|

"मानव धर्म प्रसार"प्रवर्तन के उद्देश्य--
१)मानव एक जाती और मानवता ही एक धर्म है|
२)सभी धर्मो सम्प्रदायों के सन्त प्रवर्तकों के विचारों का समादर करना|
३)लुप्तप्राय सत्य,न्याय,धर्म की पुनर्स्थापना करना|
४)सामाजिक कुरीतियों,आडम्बरों से संघर्ष एवं निवारण करना|
५)"स्थानीय न्याय"द्वारा न्याय सुलभ कराना|
६)समाज से अनाचार,दुराचार,भ्रष्टाचार मिटाना|
७)रंग,भेद एवं अस्पृश्यता का निवारण|
८)उपदेशों सम्भाषनों द्वारा जनता को जागरूक करना|
९)गांव-गांव तथा मुहल्लों में समितियों की गठन द्वारा उद्देश्यों का क्रियान्वयन|
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                                      (प्रार्थना)
हे मेरे गुरु देव करुणा सिन्धु करुणा कीजिये,
                                 हूँ अधम आधीन अशरण अब शरण में लीजिये|
खा रहा गोते हूँ मै भव सिन्धु के मझधार में,
                                  आसरा है दूसरा कोई न अब संसार में||
मुझमे है जप तप न कुछ साधन नहीं कुछ ज्ञान है,
                        निर्लज्जता है एक बाकी और बस अभिमान है|
पाप बोझे से लदी नैया भवर में जा रही,
                           नाथ दौड़ो अब बचाओ जल्दी डूबी जा रही||
आप भी यदि छोड़ देंगे फिर कहां जाऊंगा मै, 
                           जन्म दुःख से नाव कैसे पार कर पाऊंगा मै|
सब जगह मैंने भटक कर अब शरण ली आप की,
                               पार करना या न करना दोनों मर्जी आप की||
श्री महाराज जी की जय,श्री मानव धर्म प्रसार की जय