Tuesday 28 June 2011

प्रदोष व्रत का महत्व




Pradosh Vrat ka Mahatva,

प्रदोष व्रत का महत्व

प्रदोष व्रत हर महीने में दो बार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी  को प्रदोष व्रत कहते हैं। यदि इन तिथियों को सोमवार होतो उसे सोम प्रदोष व्रत कहते हैं, यदि मंगल वार होतो उसे भौम प्रदोष व्रत कहते हैं और शनिवार होतो उसे शनि प्रदोष व्रत व्रत कहते हैं। विशेष कर सोमवार, मंगलवार एवं शनिवार के प्रदोष व्रत अत्याधिक प्रभावकारी माने गये हैं। साधारण तौर पर अलग-अलग जगह पर द्वाद्वशी और त्रयोदशी की तिथि को प्रदोष तिथि कहते हैं। इस दिन व्रत रखने का विधान हैं।

प्रदोष व्रत का महत्व कुछ इस प्रकार का बताया गया हैं कि यदि व्यक्ति को सभी तरह के जप, तप और नियम संयम के बाद भी यदि उसके गृहस्थ जीवन में दुःख, संकट, क्लेश आर्थिक परेशानि, पारिवारिक कलह, संतानहीनता या संतान के जन्म के बाद भी यदि नाना प्रकार के कष्ट विघ्न बाधाएं, रोजगार के साथ सांसारिक जीवन से परेशानिया खत्म नहीं हो रही हैं, तो उस व्यक्ति के लिए प्रति माह में पड़ने वाले प्रदोष व्रत पर जप, दान, व्रत इत्यादि पूण्य कार्य करना शुभ फलप्रद होता हैं।

ज्योतिष कि द्रष्टि से जो व्यक्ति चंद्रमा के कारण पीडित हो उसे वर्ष भर प्रदोष व्रतों पर चहे वह किसी भी वारको पडता हो उसे प्रदोष व्रत अवश्य करना चाहिये। प्रदोष व्रतों पर उपवास रखना, लोहा, तिल, काली उड़द, शकरकंद, मूली, कंबल, जूता और कोयला आदि दान करने से शनि का प्रकोप भी शांत हो जाता हैं, जिस्से व्यक्ति के रोग, व्याधि, दरिद्रता, घर कि अशांति, नौकरी या व्यापार में परेशानी आदि का स्वतः निवारण हो जाएगा।

भौम प्रदोष व्रत एवं शनि प्रदोष व्रत के दिन शिवजी, हनुमानजी, भैरव कि पूजा-अर्चना करना भी लाभप्रद होता हैं।

गुरुवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत विशेष कर पुत्र कामना हेतु या संतान के शुभ हेतु रखना उत्तम होता हैं। संतानहीन दंपत्तियों के लिए इस व्रत पर घरमें मिष्ठान या फल इत्यादि गाय को खिलाने से शीघ्र शुभ फलकी प्राप्ति होति हैं। संतान कि कामना हेतु 16 प्रदोष व्रत करने का विधान हैं, एवं संतान बाधा में शनि प्रदोष व्रत सबसे उत्तम मनागया हैं।

संतान कि कामना हेतु प्रदोष व्रत के दिन पति-पत्नी दोनो प्रातः स्नान इत्यादि नित्य कर्म से निवृत होकर शिव, पार्वती और गणेशजी कि एक साथमें आराधना कर किसी भी शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर जल भिषेक, पीपल के मूल में जल चढ़ाकर सारे दिन निर्जल रहने का विधान हैं।



रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-२

Ratn evm rango dwara roga nivaran bhag:2, gems or rango dwara rogm nivaran, ratna and colour dvara rog nivaran part :-2

रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-२ 

हमारे आस पास के माहोल मे इन रंगों के होने से ही हम अपने अंगों द्वारा स्पर्श, सूंघने, स्वाद, दृष्टि और आवाज का आभास प्राप्त करते हैं। इसी वजह से हम नाक से केवल सूंघ सकते हैं, देख नहीं सकते या स्वाद नहीं ले सकते। ऐसा इसलिए होता हैं क्योकि खुशबू और बदबू को केवल नाक ग्रहन कर स्कती हैं क्योकि वह हरे रंग से प्रभावित हैं एवं वह केवल हरे रंग को ही ग्रहण करती हैं, बाकी को नहीं कर सकती। इसी लिये हरे रंग को खुशबू और बदबू जेसी सूंघने कि शक्ति के साथ में संबंध होता हैं।

इसी प्रकार सही रोग का अनुसंधान कर सही रंगोका चुनाव कर व्यक्ति निश्चित लाभा उठा सकते हैं इस मे कोइ दो राइ नहीं हो सकती।

मनुष्य के शरीर मे उत्पन्न होने वाले त्रिदोष भी इसी प्रकार सात रंगों के कारण पैदा होते हैं। आयुर्वेद में वायु दोष वायु तत्व नीले और जामुनी रंग से उतपन्न होती हैं। पित्त अग्नि तत्व के लाल रंग से उतपन्न होता हैं। कफ जल तत्व के केसरी या नारंगी से उतपन्न होता हैं। पृथ्वी तत्व हरे रंग से उतपन्न होता हैं।

पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला हरा रंग बाकि सब रंगो में सबसे ठंडा होता है। इसी लिए हमे किसी पेड़ या हरे रंग छपरे के नीचे होने से हमे कम गरमी लगती हैं। शायद इसी अनुसंधान के से आजकल प्लस्टिक के हरें रंगके छपरे या प्लास्टिक प्लेट (ग्रीन इफेक्ट) वाली चद्दर कि बिक्री जोरो पर हैं।

इस लिये मानव शरीर को गरम-ठंडा रख कर और सही रंगों की पेहचान कर मानव शरीर में प्रवाहित कर दिया जाये तो व्यक्ति सदैव निरोग रेह सकता हैं। क्योकि जन शरीर में गरमी एवं ठंडी का संतुलन खराब होजाता हैं तभी शरीरमे त्रिदोष उत्पन्न होते हैं जिसे हम विस्तान में वायु, पित्त और कफ के नाम से जानते हैं। वायु, पित्त और कफ कि उत्पत्ति से हर छोटी बडी बिमारी उत्पन्न होना शुरु होजाती हैं चाहे वह मामिली शर्दी खासीं होया बडे से बडा कैंसर इत्यादि हो।

हमारे शरीर में जब गर्मी या ठंडी की अधिकता या कमी हो जाती है तो विपरीत रंगो या रत्नो के माध्यमों द्वारा रंगों के संतुलन से इसे ठीक किया जाता हैं।

क्योकि रंग हमें प्राप्त होते हैं रत्नों से। हर एक रत्न में रोग ठीक करने की क्षमता होती है। शरीर में जब रोग पैदा होते हैं तो वह रंग को लेकर और यह कमी पूरी करते हैं रत्न।  सदियों से आयुर्वेद में रत्नों का उपयोग भस्म के रूप में किया जाता रहा हैं  ज्योतिष में रोगों को ग्रहो से जोड कर उसे शांत करने हेतु रत्न धारण कर प्रयोग किया जाता हैं।  इसी लिये यह सारी क्रियाए महज रंगों का संतुलन शरीर में करने से ही संपन्न होती है।

ज्यादातर लोगो को गरमी में काला कपड़ा पहनने से अधिक गरमी महसूस होती हैं और सफेद कपड़ा पहनने से ठंडक महसूस होती हैं आपने भी अपने जीवन में कभी ना कभी यह जरुर महसुश किया होगा कि किसी रंग विशेष के कपडे या अन्य सामग्री से आपको लाभा हो रहा हैं या नुक्शान हो रहा हैं।

किसी विशेष रंग के कपडे पहनेते हि आपको ज्यादा गुस्सा आजाता हैं तो कभी किसी रंग के कपडे पहने होने पर गुस्से बहोत कम मात्रा में या नहीं के बराबर आता हैं यह प्रभाव तो आपने सहज में ही महसूस किया होगा।। यह सब खेल रंगो कि माय का हैं।


नोट:-
  • उपरोक्त सभी जानकारी हमारे निजी एवं हमारे द्वारा किये गये प्रयोगो एवं अनुशंधान के आधार पर दिगई हैं।
  • कृप्या किसी भी प्रकार के प्रयोग या रंग या रत्न का चुनाव करने से पूर्व विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले।
  • यदि कोइ व्यक्ति विशेषज्ञ कि सलाह नही लेकर उपरोक्त जानकारी के प्रयोग करता हैं तो उसके लभा या हानी उसकी स्वयं कि जिन्मेदारी होगी। इस्से के लिये कार्यालय के सदस्य या संस्थपक जिन्मेदार नहीं होंगे।
  • हम उपयोक्त लाभ का दावा नहीं कर रहे यह महज एक जानकारी प्रदान करेने हेतु इस ब्लोग पर उपलब्ध कराइ हैं।
  • रंगोका प्रभाव निश्चित हैं इसमे कोइ दो राय नहीं किन्तु रत्न एवं रंगो का चुनाव अन्य उसकि गुणवत्ता एवं सफाई पर निर्भर हैं अपितु विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले धन्यवाद।

रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-१

Ratn evm rango dwara roga nivaran bhag:1, gems or rango dwara rogm  nivaran, ratna and colour dvara rog nivaran part :-1

रत्न एवं रंगों द्वारा रोग निवारण भाग:-१

हर रत्न का अपने रंग का अद्भुत एवं चमत्कारिक प्रभाव होता हैं जिस्से हमारे मानव शरीर से सभी प्रकार के रोग हेतु उपयुक्त रत्न का चुनाव कर लाभ प्राप्त किया जासकता हैं।

ब्रह्मांड में व्याप्त हर रंग इंद्रधनुष के सात रंगों के संयोग से संबंध रखता हैं, हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों साल पहले लिखदिया था कि इंद्रधनुष के सात रंग सात ग्रहों के प्रतीक होते हैं, एवं इन रंगों का संबंध ब्रह्मांड के सात ग्रहो से होता हैं जो मनुष्य पर अपना निश्चित प्रभाव हर क्षण डालते हैं। इस बात को आज का उन्नत एवं आधुनिक विज्ञान भी इस बातकी पृष्टि करता हैं। ज्योतिष के द्रष्टि कोण से हर ग्रह का अपना अलग रंग व रत्न हैं।
हमारे लिये अपने जीवन को रोग मुक्त रखने हेतु इन सातो रंगो का निश्चित संतुलन रखना अति आवश्यक होता हैं। एवं यदि यह संतुलन बिगड जाये तो व्यक्ति को तरह-तरह के रोग होना प्रारंभ हो जाता हैं एवं उन रंगो को संतुलित करने हेतु रत्नों को माध्यम बनाकर उसे कायम रखकर हम कुछ बीमारियों में लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

इन रंगो को प्रिज्म में देखने पर वह अलग रंग का दिखता हैं। वास्तव में हर रंग जो हमे दिखाइ देता हैं जिसे हम - स्वेत-काला-लाल-हरा-पीला-भूरा इत्यादि सभी जो हमे द्रष्टि गोचर होते हैं वह रंग वास्तव में अलग रंग का होता हैं!

जेसे बादल का रंग देखने में हल्का भूरा या हल्का नीला प्रतित होता है, लेकिन यदि इन बादल को प्रिज्म के माध्यम से देखा जाए तो काला या हल्का भूरा दिखने वाला बादल असल में नारंगी रंग का होता हैं। सूर्य की रोशनी देख ने में सफेद या सुनहरी दिखती हैं लेकिन प्रिज्म से देखने से इसमें सात रंग दिखाइ देते हैं।

कोइ भी व्यक्ति रंगों के भेद को समज कर कौन सा रंग शरीर के किस हिस्से पर अपना प्रभावित रखता हैं, कौन रंग किस बीमारी को पैदा कर सकता हैं,

सात रंगो कि जानकारी इस प्रकार हैं।

सूर्य ग्रह के मुख्य रत्न माणिक्य (रुबी) से लाल रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
चंद्र ग्रह के मुख्य रत्न मोति से केसरी या नारंगी रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
मंगल ग्रह के मुख्य रत्न मूंगे से पीले रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
बुध ग्रह के मुख्य रत्न पन्ना से हरे रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
बृहस्पती (गुरु) ग्रह के मुख्य रत्न पीले पुखराज से नीले रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
शुक्र ग्रह के मुख्य रत्न हीरे से हल्के नीले(आसमानी) रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।
शनि ग्रह के मुख्य रत्न निलम से जामुनी रंग कि रश्मि प्राप्त होती हैं।

अब इन रंगो का पंचभूत तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के बारे में जाने और समज कर उनका प्रयोग कर लाभ प्राप्त कर सके।

जल तत्व:- केसरी या नारंगी एंव आसमानी रंग का संचालन करता हैं।
अग्नि तत्व:- लाल एवं पीले रंग का संचालन करता हैं।
वायु तत्व:- जामुनी रंग का संचालन करता हैं।
आकाश तत्व:- नीले रंग का संचालन करता हैं।
पृथ्वी तत्व:- हरे रंग का संचालन करता हैं।

मानव शरीर के साथ रंगो के भेद को जनते हैं। इन सबके भेदो को प्रिज्म द्वार अनुसंधान कर जानागया हैं।
आंख :- लाल रंग
श्वसन:- हरा रंग
स्पश:- जामुनी रंग
ध्वनि:- नीले रंग
स्वाद:- केसरी या नारंगी

मानव शरीर कि गरमी पीले एवं आसमानी रंग से प्रभावित होती हैं। त्वचा जामुनी रंग से प्रभावित होती हैं। नाक को देखने से नाक हरे प्रभावित होती हैं। जीभ को देखने से केसरी या नारंगी से प्रभावित होती दिखाइ देती हैं। कान को देख ने पर कान की नली नीले रंग कि ही दिखाई देती हैं।

(क्रमशः...........)

नोट:-

  • उपरोक्त सभी जानकारी हमारे निजी एवं हमारे द्वारा किये गये प्रयोगो एवं अनुशंधान के आधार पर दिगई हैं।

  • कृप्या किसी भी प्रकार के प्रयोग या रंग या रत्न का चुनाव करने से पूर्व विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले।

  • यदि कोइ व्यक्ति विशेषज्ञ कि सलाह नही लेकर उपरोक्त जानकारी के प्रयोग करता हैं तो उसके लभा या हानी उसकी स्वयं कि जिन्मेदारी होगी। इस्से के लिये कार्यालय के सदस्य या संस्थपक जिन्मेदार नहीं होंगे।

  • हम उपयोक्त लाभ का दावा नहीं कर रहे यह महज एक जानकारी प्रदान करेने हेतु इस ब्लोग पर उपलब्ध कराइ हैं।

  • रंगोका प्रभाव निश्चित हैं इसमे कोइ दो राय नहीं किन्तु रत्न एवं रंगो का चुनाव अन्य उसकि गुणवत्ता एवं सफाई पर निर्भर हैं अपितु विशेषज्ञ कि सलाह अवश्य ले धन्यवाद।

ब्रह्मदेवकृत राम स्तुति

Brahm Dev Krut Ram Stuti,

ब्रह्मदेवकृत राम स्तुति
श्रीगणेशाय नमः ।
ब्रहोवाच

वन्दे देवं विष्णुमशेषस्थितिहेतुं त्वामध्यात्मज्ञानिभिरन्तर्ह्रदि भाव्यम् ।
हेयाहेयद्वंद्वविहीनं परमेकं सत्तामात्रं सर्वह्रदिस्थं दृशिरूपम् ॥ १ ॥

प्राणापानौ निश्चयबुद्ध्या ह्रदि रुद्‌ध्वा छित्त्वा सर्वसंशयबंधं विषयौघान् ।
पश्यंतीशं यं गतमोहा यतयस्तं वंदे रामं रत्‍नकिरीटं रविभासम् ॥ २ ॥

मायातीतं माधवमाद्यं जगदादिं मायाधीशं मोहविनाशं मुनिवंद्यम् ।
योगिध्येयं योगविधानं परिपूर्णं वंदे रामं रञ्जितलोकं रमणीयम् ॥ ३ ॥

भावाऽभावप्रत्ययहीनं भवमुख्यैर्भोगासक्तैरर्चितपदांबुजयुग्मम् ।
नित्यं शुद्धं बुद्धमनंतं प्रणवाख्यं वंदे रामं वीरमशेषासुरदावम् ॥ ४ ॥

त्वं मे नाथो नाथितकार्याखिलकारी मानातीतो माधवरूपोऽखिलधारी ।
भक्त्या गम्यो भाविरूपो भवहारी योगाभ्यासैर्भावितचेतःसहचारी ॥ ५ ॥

त्वामाद्यंतं लोकततीनां परमीशं लोकानां नो लौकिकमानैरधिगम्यम् ।
भक्तिश्रद्धाभावसमेतैर्भजनीयं वंदे रामं सुन्दरमिन्दीवरनीलम् ॥ ६ ॥

को वा ज्ञातुं त्वामतिमानं गतमानं मानासक्तो माधवशक्तो मुनिमान्यम् ।
वृन्दारण्ये वंदितवृन्दाकरवृन्दं वंदे रामं भवमुखवन्द्यं सुखकंदम् ॥ ७ ॥

नानाशास्त्रैर्वेदकदंबैः प्रतिपाद्यं नित्यानंदं निर्विषयज्ञानमनादिम् ।
मत्सेवार्थं मानुषभावं प्रतिपन्नं वंदे रामं मरकतवर्णं मथुरेशम् ॥ ८ ॥

श्रद्धायुक्तो यः पठतीमं स्तवमाद्यं ब्राह्मं ब्रह्मज्ञानविधानं भुवि मर्त्यः ।
रामं श्यामं कामितकामप्रदमीशं ध्यात्वा ध्याता पातकजालैर्विगतः स्यात् ॥ ९ ॥

॥ इति श्रीमदध्यात्मरामायणे युद्धकाण्डे ब्रह्मदेवकृतं रामस्तोत्रम् संपूर्णम् ॥

महादेव कृत रामस्तुति

mahadev krut ram stuti

महादेव कृत रामस्तुति
श्री महादेव उवाच ।

नमोऽस्तु रामाय सशक्तिकाय नीलोत्पलश्यामकोमलाय ।
किरीटहाराङ्गदभूषणाय सिंहासनस्थाय महाप्रभाय ॥ १ ॥

त्वमादिमध्यांतविहीन एकः स्रृजस्यवस्यत्सि च लोकजातम् ।
स्वमायया तेन न लिप्यसे त्वं यत्स्वे सुखेऽजस्त्ररतोऽनवद्यः ॥ २॥

लीलां विधत्से गुणसंवृतस्त्वं प्रसन्नभक्तानुविधानहेतोः ।
नानाऽवतारैः सुरमानुषाद्यैः प्रतीयसे ज्ञानिभिरेव नित्यम् ॥ ३ ॥

स्वांशेन लोकं सकलं विधाय तं बिभर्षि च त्वं तदधः फणीश्‍वरः ।
उपर्यधो भान्वनिलोड्डपौषधीन्प्रकर्षरूपोवसि नैकधा जगत् ॥४॥

त्वमिह देहभृतां शिखिरूपः पचसि भक्तमशेषमजस्त्रम् ।
पवनपंचकरूपसहायो जगदखंडमनेन बिभर्षि ॥ ५ ॥

चंद्रसूर्यशिखिमध्यगतं यत्तेज ईश चिदशेषतनूनाम् ।
प्राभवत्तनुभृतामिह धैर्यं शौर्यमायुरखिलं तव सत्त्वम् ॥ ६ ॥

त्वं विरिञ्चिशिवविष्णुविभेदात्कालकर्मशशिसूर्यविभागात् ।
वादिनां पृथगिवेश विभासि ब्रह्म निश्‍चितमनन्यदिहैकम् ॥ ७ ॥

मत्स्यादिरूपेण यथा त्वमेकः श्रुतौ पुराणेषु च लोकसिद्धः ।
तथैव सर्वं सदसद्विभागस्त्वमेव नान्यद्भवतो विभाति ॥ ८ ॥

यद्यत्समुत्पन्नमनन्तसृष्टावुत्पत्स्यते यच्च भवच्च यच्च ।
न दृश्यते स्थावरजंगमादौ त्वया विनाऽतः परतः परस्त्वम् ॥ ९ ॥

तत्त्वं न जानंति परात्मनस्ते जनाः समस्तास्तव माययातः ।
त्वद्भक्तसेवामलमानसानां विभाति तत्त्वं परमेकमैशम् ॥ १० ॥

ब्रह्मादयस्ते न विदुः स्वरूपं चिदात्मतत्त्वं बहिरर्थभावाः ।
ततो बुधस्त्वामिदमेव रूपं भक्त्या भजन्मुक्तिमुपैत्यदुःखः ॥ ११ ॥

अहं भवन्नामगुणैः कृतार्थो वसामि काश्यामनिशं भवान्या ।
मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं दिशामि मंत्रं तव राम नाम ॥ १२ ॥

इमं स्तवं नित्यमनन्यभक्त्या श्रृण्वन्ति गायंति लिखंति ये वै ।
ते सर्व्सौख्यं परमं च लब्ध्वा भवत्पदं यान्ति भवत्प्रसादात् ॥ १३ ॥

॥ इति श्रीमहादेवकृतस्तोत्र संपूर्णम् ॥

रामाष्टकम्

RamaShtakam, Ram Ashtakam, राम अष्टकम्

रामाष्टकम्

भजे विशेषसुन्दरं समस्तपापखण्डनम् ।
स्वभक्तचित्तरञ्जनं सदैव राममद्वयम् ॥ १ ॥

जटाकलापशोभितं समस्तपापनाशकम् ।
स्वभक्तभीतिभंजनं भजे ह राममद्वयम् ॥ २ ॥

निजस्वरूपबोधकं कृपाकरं भवापहम् ।
समं शिवं निरंजनं भजे ह राममद्वयम् ॥ ३ ॥

सदाप्रञ्चकल्पितं ह्यनामरूपवास्तवम् ।
निराकृतिं निरामयं भजे ह राममद्वयम् ॥ ४ ॥

निष्प्रपञ्चनिर्विकल्पनिर्मलं निरामयम् ॥
चिदेकरूपसंततं भजे ह राममद्वयम् ॥ ५ ॥

भवाब्धिपोतरूपकं ह्यशेषदेहकल्पितम् ।
गुणाकरं कृपाकरं भजे ह राममद्वयम् ॥ ६ ॥

महावाक्यबोधकैर्विराजमनवाक्पदैः ।
परब्रह्म व्यापकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ७ ॥

शिवप्रदं सुखप्रदं भवच्छिदं भ्रमापहम् ।
विराजमानदैशिकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ८ ॥

रामाष्टकं पठति यः सुकरं सुपुण्यं व्यासेन भाषितमिदं श्रृणुते मनुष्यः ।
विद्यां श्रियं विपुलसौख्यमनन्तकीर्ति सम्प्राप्य देहविलये लभते च मोक्षम् ॥ ९ ॥

॥ इति श्रीव्यासविरचितं रामाष्टकं संपूर्णम् ॥

जटायुकृत राम स्तोत्रम्

jatayu krut ram stotra
जटायुकृत राम स्तोत्रम्

श्रीगणेशाय नमः । जटायुरुवाच ।

अगणितगुणमप्रमेयमाद्यं सकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम् ।
उपरमपरमं परात्मभृतं सततमहं प्रणतोऽस्मि रामचन्द्रम् ॥ १ ॥

निरवधिसुखमिंदिराकटाक्षं क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखदिदुःखम् ।
नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं वरदमहं वरचापबाणहस्तम् ॥ २ ॥

त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं रविशतभासुरमीहितप्रदानम् ।
शरणदमनिशं सुरागमूले कृतनिलयं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥ ३ ॥

भवविपिनदवाग्निमधेयं भवमुखदैवतदैवतं दयालुम् ।
दनुजपतिसहस्त्रकोटिनाशं रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये ॥ ४ ॥

अविरतभवभावनातिदूरं भवविमुखैर्मुनिभिः सदैव दृश्यम् ।
भवजलधिसुतारणांघ्रिपोतं शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये ॥ ५ ॥

गिरिशगिरिसुतमनोनिवासं गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम् ।
सुरवरदनुजेन्द्रसेवितांघ्रिं सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये ॥ ६ ॥

परधनपरदारवर्जितानां परगुणभूतिषु तुष्टमानसानाम् ।
परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं रघुवरमंबुजलोचनं प्रपद्ये ॥ ७ ॥

स्मितरुचिरविकासिताब्जमतिसुलभं सुरराजनीलनीलम् ।
सितजलरुहचारुनेत्रशोभं रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्रपद्ये ॥ ८ ॥

हरिकमलजशंभुरूपभेदात्त्वमहि विभासि गुणत्रयानुवृत्तः ।
रविरिव जल्पूरितोदपात्रेष्वमरपतिस्तुतिपात्रमीशमीडे ॥ ९ ॥

रतिपतिशतकोटिसुन्दराङ्ग शतपथगोचरभावनाविदूरम्।
यतिपतिह्रदये सदा विभांतं रघुपतिमार्तिहरं प्रभुं प्रपद्ये ॥ १० ॥

इत्येवं स्तुवतस्तस्य प्रसन्नोऽभूद्रघूत्तमः ।
उवाच गच्छ भद्रं ते मम विष्णोः परं पदम् ॥ ११ ॥

श्रृतोति य इदं स्तोत्रं लिखेद्वा नियतः पठेत् ।
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत् ॥ १२ ॥

इति राघवभाषितं तदा श्रुतवान् हर्षसमाकुलो द्विजः ।
रघुनन्दनसाम्यमास्थितः प्रययौ ब्रह्मसुपूजितं पदम् ॥ १३ ॥
॥ इति श्रीमदध्यात्मरामायणे आरण्यकांडे जटायुकृतरामस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Saturday, May 29, 2010 वास्तु एवं वेध दोष (भाग:२) Vastu evm vedha dosha (bhag:2) वास्तु एवं वेध दोष (भाग:२) द्वार वेध भवन के मुख्य द्वार के सामने कोई वृक्ष हो तो वृक्ष वेध कहलाता हैं। वृक्ष वेध होने से भवन स्वामी को अनचाहे अपमान एवं बदनामी होना पडता हैं। भवन के मुख्य द्वार के सामने कोई खंभा या स्तम्भ हो तो स्तम्भ वेध कहलाता हैं। स्तम्भ वेध होने से भवन मे निवास कर्ता के लिये पराजय, धनहानि, स्त्रीपीड़ा कारक होता हैं। भवन के मुख्य द्वार के सामने कोइ अन्य भवन का द्वार या कोना होने से भी द्वार वेध माना जाता हैं। एसी स्थिति होने से भवन स्वामी को विभिन्न प्रकार के कष्टो से पीडित होने का संकेत हैं। वेध दोष भवन कि ऊंचाई से दोगुनी ऊंचाई तक के क्षेत्र के भीतर होने से अधिक प्रभावी होता हैं, भवन कि ऊंचाई से दोगुनी ऊंचाई से दूर यदि वेधकारक वस्तु होने पर वेध दोष का प्रभाव कम होता जाता हैं। मुख्य द्वार के सामने यदि कीचड़, नाली या जल निकास स्थान होने से निवास कर्ता को मानसिक कष्ट, अवसाद तथा धनका अभाव हैं। मुख्य द्वार के सामने यदि हैंड पंप अथवा नल होने से रोग होने कि संभावना होती हैं। मुख्य द्वार के सामने शिवालय या मंदिर होना अशुभ मानागया हैं, एसी स्थिती होने से निवास कर्ता के कुल कि हानि होती हैं। मुख्य द्वार के सामने पालतू पशु बांधने हेतु खूंटा रखने को शास्त्र में कील वेध दोष बताया गया हैं। Posted by GURUTVA KARYALAY at 2:38 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Vastu Thursday, May 27, 2010 गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:४) Gruha pravesha evm vastu bhag:4, gruh arambha evm vastu part:4 गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:४) मास कि तिथि एवं गृह प्रवेश द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी एवं पूर्णिमा - इन तिथियों में गृह प्रवेश करने से शुभ फल प्राप्त होता हैं। प्रतिपदा को गृह प्रवेश करने से घर में दरिद्रता आति हैं। चतुर्थी को गृह प्रवेश करने से धन का नाश होता हैं। अष्टमी को गृह प्रवेश करने से उच्चाटन होता हैं। नवमी को गृह प्रवेश करने से धन-धान्य का नाश होकर अस्त्र शस्त्र से आघात होने कि संभावना अधिक होती हैं। चतुर्दशी को गृह प्रवेश करने से संतान एवं घर में स्त्री वर्ग का नाश होता हैं। अमावस्या को गृह प्रवेश करने से सरकार से परेशानी प्राप्त होती हैं। साप्ताहिक वार एवं गृह प्रवेश सोम, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि इन वारों मे गृह प्रवेश करने से उत्तम फल कि प्राप्ति होती हैं । रविवार और मंगलवार को गृह प्रवेश या भूमि खोदनेका कार्य करने से अनिष्ट होने कि संभावना अधिक होती हैं। गृहारम्भके समय कठोर वचन बोलना, थूकना और छींकना अशुभ है । Posted by GURUTVA KARYALAY at 2:53 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Vastu विश्वंभरी स्तुति Visvambhari Stuti, Viswambhari Stuti विश्वंभरी स्तुति पोस्ट सौजन्य: स्वस्तिक, स्वस्तिक सोफ्टेक इन्डिया >> Read In English, Gujrati Click Here विश्वंभरी अखिल विश्वतणी जनेता। विद्या धरी वदनमां वसजो विधाता॥ दुर्बुद्धि दुर करी सद्दबुद्धि आपो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥१॥ भूलो पडि भवरने भटकुं भवानी। सुझे नहि लगीर कोइ दिशा जवानी॥ भासे भयंकर वळी मनना उतापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥२॥ आ रंकने उगरवा नथी कोइ आरो। जन्मांध छु जननी हु ग्रही हाथ तारो॥ ना शुं सुणो भगवती शिशुना विलापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥३॥ मा कर्म जन्म कथनी करतां विचारु। आ सृष्टिमां तुज विना नथी कोइ मारु॥ कोने कहुं कठण काळ तणो बळापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥४॥ हुं काम क्रोध मध मोह थकी भरेलो। आडंबरे अति धणो मद्थी छकेलो॥ दोषो बधा दूर करी माफ पापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥५॥ ना शास्त्रना श्रवणनु पयःपान पीधु। ना मंत्र के स्तुति कथा नथी काइ कीधु॥ श्रद्धा धरी नथी कर्या तव नाम जापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥६॥ रे रे भवानी बहु भूल थई ज मारी। आ जिंदगी थई मने अतिशे अकारी॥ दोषो प्रजाळि सधळा तव छाप छापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥७॥ खाली न कोइ स्थळ छे विण आप धारो। ब्रह्मांडमां अणु-अणु महीं वास तारो॥ शक्ति न माप गणवा अगणित मापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥८॥ पापो प्रपंच करवा बधी रीते पूरो। खोटो खरो भगवती पण हुं तमारो॥ जाडयांधकार करी दूर सुबुद्धि स्थापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥९॥ शीखे सुणे रसिक छंद ज एक चित्ते। तेना थकी त्रिविध ताप टळे खचिते॥ बुद्धि विशेष जगदंब तणा प्रतापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥१०॥ श्री सदगुरु शरनमां रहीने यजुं छुं। रात्रि दिने भगवती तुजने भजुं छु॥ सदभक्त सेवक तणा परिताप चापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥११॥ अंतर विषे अधिक उर्मि थतां भवानी। गाऊ स्तुति तव बळे नमीने मृडानी॥ संसारना सकळ रोग समूळ कापो। माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥१२॥ Posted by GURUTVA KARYALAY at 2:17 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Durga सर्व रोगनाशक यंत्र Sarva roga nivaran yantra, sarva rog nashak yantra, sarv rog nivarak yantra, Sarva roga nivaran kawach, sarva rog nashak kavach, sarv rog nivarak kawach, mahamrutyunjay kavach, maha mrutyunjay yantra सर्व रोगनाशक कवच मनुष्य अपने जीवन के विभिन्न समय पर किसी ना किसी साध्य या असाध्य रोग से ग्रस्त होता हैं। उचित उपचार से ज्यादातर साध्य रोगो से तो मुक्ति मिल जाती हैं, लेकिन कभी-कभी साध्य रोग होकर भी असाध्या होजाते हैं, या कोइ असाध्य रोग से ग्रसित होजाते हैं। हजारो लाखो रुपये खर्च करने पर भी अधिक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। डॉक्टर द्वारा दिजाने वाली दवाईया अल्प समय के लिये कारगर साबित होती हैं, एसि स्थिती में लाभा प्राप्ति हेरु व्यक्ति एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर के चक्कर लगाने को बाध्य हो जाता हैं। भारतीय ऋषीयोने अपने योग साधना के प्रताप से रोग शांति हेतु विभिन्न यंत्र, मंत्र एवं तंत्र उल्लेख अपने ग्रंथो में कर मानव जीवन को लाभ प्रदान करने का सार्थक प्रयास हजारो वर्ष पूर्व किया था। बुद्धिजीवो के मत से जो व्यक्ति जीवनभर अपनी दिनचर्या पर नियम, संयम रख कर आहार ग्रहण करता हैं, एसे व्यक्ति को विभिन्न रोग से ग्रसित होने की संभावना कम होती हैं। लेकिन आज के युग में एसे व्यक्ति भी भयंकर रोग से ग्रस्त होते दिख जाते हैं। क्योकि समग्र संसार काल के अधीन हैं। एवं मृत्यु निश्चित हैं जिसे विधाता के अलावा और कोई टाल नहीं सकता, लेकिन रोग होने कि स्थिती में व्यक्ति रोग दूर करने का प्रयास तो अवश्य कर सकता हैं। इस लिये यंत्र मंत्र एवं तंत्र के कुशल जानकार द्वारा योग्य मार्गदर्शन लेकर व्यक्ति रोगो से मुक्ति पाने का या उसके प्रभावो को कम करने का प्रयास भी अवश्य कर सकता हैं। ज्योतिष विद्या के कुशल जानकर काल पुरुषकी गणना कर अनेक रोगो के रहस्य को उजागर कर सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से रोग के मू्लको पकडने मे सहयोग मिलता हैं, जहा आधुनिक चिकित्सा शास्त्र अक्षम होजाता हैं वहा ज्योतिष शास्त्र द्वारा रोग के मूल को पकड कर उसका निदान करना लाभदायक एवं उपायोगी सिद्ध होता हैं। हर व्यक्ति में लाल रंगकी कोशिकाए पाइ जाती हैं, जिसका विकास क्रम बद्ध तरीके से होता रहता हैं। जब इन कोशिकाओ के क्रम में परिवर्तन होता है या विखंडिन होता हैं तब व्यक्ति के शरीर में स्वास्थ्य संबंधी विकारो उत्पन्न होते हैं। एवं इन कोशिकाओ का संबंध नव ग्रहो के साथ होता हैं। जिस्से रोगो के होने के कारणा व्यक्तिके जन्मांग से दशा-महादशा एवं ग्रहो कि गोचर में स्थिती से प्राप्त होता हैं। सर्व रोग निवारण कवच एवं महामृत्युंजय यंत्र के माध्यम से व्यक्ति के जन्मांग में स्थित कमजोर एवं पीडित ग्रहो के अशुभ प्रभाव को कम करने का कार्य सरलता पूर्वक किया जासकता हैं। जेसे व्यक्ति को ब्रह्मांड कि उर्जा एवं पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल प्रभावीत कर्ता हैं ठिक उसी प्रकार कवच एवं यंत्र के माध्यम से ब्रह्मांड कि उर्जा के सकारात्मक प्रभाव से व्यक्ति को सकारात्मक उर्जा प्राप्त होती हैं जिस्से रोग के प्रभाव को कम कर रोग मुक्त करने हेतु सहायता मिलती हैं। रोग निवारण हेतु महामृत्युंजय मंत्र एवं यंत्र का बडा महत्व हैं। जिस्से हिन्दू संस्कृति का प्रायः हर व्यक्ति परिचित हैं। कवच के लाभ : एसा शास्त्रोक्त वचन हैं जिस घर में महामृत्युंजय यंत्र स्थापित होता हैं वहा निवास कर्ता हो नाना प्रकार कि आधि-व्याधि-उपाधि से रक्षा होती हैं। पूर्ण प्राण प्रतिष्ठित एवं पूर्ण चैतन्य युक्त सर्व रोग निवारण कवच किसी भी उम्र एवं जाति धर्म के लोग चाहे स्त्री हो या पुरुष धारण कर सकते हैं। जन्मांगमें अनेक प्रकारके खराब योगो और खराब ग्रहो कि प्रतिकूलता से रोग उतपन्न होते हैं। कुछ रोग संक्रमण से होते हैं एवं कुछ रोग खान-पान कि अनियमितता और अशुद्धतासे उत्पन्न होते हैं। कवच एवं यंत्र द्वारा एसे अनेक प्रकार के खराब योगो को नष्ट कर, स्वास्थ्य लाभ और शारीरिक रक्षण प्राप्त करने हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र सर्व उपयोगी होता हैं। आज के भौतिकता वादी आधुनिक युगमे अनेक एसे रोग होते हैं, जिसका उपचार ओपरेशन और दवासे भी कठिन हो जाता हैं। कुछ रोग एसे होते हैं जिसे बताने में लोग हिचकिचाते हैं शरम अनुभव करते हैं एसे रोगो को रोकने हेतु एवं उसके उपचार हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र लाभादायि सिद्ध होता हैं। प्रत्येक व्यक्ति कि जेसे-जेसे आयु बढती हैं वैसे-वसै उसके शरीर कि ऊर्जा होती जाती हैं। जिसके साथ अनेक प्रकार के विकार पैदा होने लगते हैं एसी स्थिती में भी उपचार हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र फलप्रद होता हैं। जिस घर में पिता-पुत्र, माता-पुत्र, माता-पुत्री, या दो भाई एक हि नक्षत्रमे जन्म लेते हैं, तब उसकी माता के लिये अधिक कष्टदायक स्थिती होती हैं। उपचार हेतु महामृत्युंजय यंत्र फलप्रद होता हैं। जिस व्यक्ति का जन्म परिधि योगमे होता हैं उन्हे होने वाले मृत्यु तुल्य कष्ट एवं होने वाले रोग, चिंता में उपचार हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र शुभ फलप्रद होता हैं। नोट:- पूर्ण प्राण प्रतिष्ठित एवं पूर्ण चैतन्य युक्त सर्व रोग निवारण कवच एवं यंत्र के बारे में अधिक जानकारी हेतु हम से संपर्क करें। GURUTVA KARYALAY 92/3, BANK COLONY, BHUBANESWAR(ORISSA), INDIA PIN-751 018 Call Us:- 91+ 9338213418, 91+ 9238328785 E-mail Us:- gurutva.karyalay@gmail.com gurutva_karyalay@yahoo.co.in, Posted by GURUTVA KARYALAY at 1:36 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Astrology, Info, Mantra, Product, Shiv, Special त्रिखला दोष Trikhala dosha, Trikhal Toga, Trikhal Dosa त्रिखला दोष जिस दंपती को तीन लडकियों के पैदा होने के बाद लडका पैदा हो जाता हैं या तीन लडकों के पैदा होने बाद लडकी पैदा हो जाती हैं तो उसे त्रिखला दोष होता है। जिस दंपती त्रिखला दोष से युक्त होते हैं उन्हें जीवन में काफी परेशानि एवं संकटो से ग्रस्त देखा गया हैं। त्रिखला दोष से मुख्य समस्या पारिवारिक मनमुटाव पैदा होता हैं, जिस के फल स्वरुप पारिवार में अलगाव कि स्थिती उत्पन्न होती हैं। इस्के अतिरिक्त दंपती को अपने वैवाहिक जीवन में पूर्ण सुख प्राप्त नहीं हो पाता। ज्यादातर बच्चों का स्वास्थ्य़ भी खराब रहता हैं जिस्से दंपती बच्चों भी सुख देने में असमर्थ होते हैं। उपाय:- त्रिखला दोष कि शान्ति हेतु महामृत्युंजय मंत्र-यंत्र का प्रयोग करें। Posted by GURUTVA KARYALAY at 1:18 AM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Astrology Wednesday, May 26, 2010 वास्तु एवं वेध दोष (भाग:१) Vastu evm vedha dosha (bhag:1) वास्तु एवं वेध दोष (भाग:१) वास्तु ग्रंथों में अनेक प्रकार के वेध दोष बताए गए हैं। जिसमें से कुछ वेध दोष तो प्रत्यक्ष होते हैं, जो सरलता से दिखाई देते हैं। और कुछ सरलता से नहीं दिखते। दिखाई देने वाले वेधों की पहचान कर उसका निदान तो आसानी से किया जासकता हैं। लेकिन नहीं दिखाई देने वाले वेधों के दोषो कि पहचान कुशल वास्तु विशेषज्ञ हि कर सकते हैं। वास्तु सिद्धान्त में वेध दोष एक महत्वपूर्ण दोष मानागया हैं, जिसकी उचित एवं शास्त्रीय जानकारी अति महत्वपूर्ण हैं। भवन कि दिवारों के कोण एक समान होतो शुभ माना जाता हैं और यदि चारों कोनो में से एक भी छोडा या बडा होतो तो वेध दोष माना जाता हैं। भवन कि दिवार के कोने चार से ज्यादा होना वेध दोष माना जाता हैं। इस प्रकार के वेध दोष वाले भवन मे निवास कर्ता को आकस्मीक दुर्घटना एवं शस्त्र पीड़ा होने कि संभावना अधिक होती हैं। मार्ग वेध यदि सड़क का रास्ता ठीक आपके मुख्या द्वार पर आकर समाप्त होता हओतो मार्ग वेध माना जाता हैं। क्योकि सड़क पर वाहन एवं अन्य जीव के गति करने से अक्सर ऊर्जा का क्षेत्र गतिशील रहता हैं, एवं उस मार्ग की गतिशीलता से उतपन्न होने वाली उर्जा मार्ग से गति करने वाले जीव एवं वाहन कि संख्या और सफ्तार पर निर्भर करती हैं। यदि उर्जा कि गति तिव्र हैं तो निवास स्थान पर उर्जा का आगमन होकर वहा कि सकारात्मक तरंगों को बाधित कर नकारात्मक प्रभाव उतपन्न करती हैं, जिस्से भवन में अशांति और बेचैनी हर समय बनी रहती हैं। वेध दोष का प्रभाव भवन के मुख्य द्वार के खुले रहने के समय पर निर्भर करता हैं। यदि द्वार अधिक समय तक खुला रहता हैं, तो अधिक नकारात्मक उर्जा प्रवेश करेगे और कम समय के लिये खुल ने से वेह दोष का प्रभाव कम रहता हैं। भवन के मुख्य द्वार एसा बनाये जिस्से द्वार बंध होने से वायु का आवागम न हो, द्वार बंध होने से वायु का आवागम होने से दोष का प्रभाव तीव्र होते देखे गये हैं। द्वार दोष कम करने हेतु मुख्य द्वार पर शुभ चिन्ह वाले तोरण या कलश, स्वास्तिक इत्यादि बनवाने से भी यह द्वार दोष कम होता हैं, द्वार के चारों ओर चांदी का अखंडित तार बांध ने से भी मार्ग वेध का प्रभाव कम हो जाता हैं। Posted by GURUTVA KARYALAY at 2:26 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Vastu Tuesday, May 25, 2010 भौम प्रदोष व्रत 25-मई-2010 भौम प्रदोष व्रत 25-मई-2010 (ऋण मोचन हेतु विशेष लाभदायक) >> प्रदोष व्रत के बारे में अधिक जानकारी हेतु यहा क्लिक करे http://gurutvakaryalay.blogspot.com/2010/03/blog-post_26.html Posted by GURUTVA KARYALAY at 9:27 AM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Friday, May 21, 2010 गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:३ Gruha pravesha evm vastu bhag:3, gruh arambha evm vastu part:3 गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:३ नक्षत्र एवं गृह प्रवेश अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुण्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, उत्तराषाढा़, श्रवण, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्र में गृह प्रवेश श्रेष्ठ माना गया हैं । मास एवं गृह प्रवेश चैत्र, ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद, आश्विन, पौष और माघ - मास मे गृह प्रवेश करना माना गया हैं। वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्श और फाल्गुन - मास में गृह प्रवेश श्रेष्ठ माना गया हैं । मास के शुक्ल पक्ष में गृह प्रवेश करने से सुख कि प्राप्ति होती हैं और कृष्ण पक्ष में गृह प्रवेश करने से चोर-डाकु द्वारा धन हानि होती हैं। * चैत्र मास में गृह प्रवेश करने से रोग और शोक उत्पन्न होते हैं । * वैशाख मास में गृह प्रवेश करने से धन, वैभव, संतान एवं आरोग्य की प्राप्ति होती हैं । * ज्येष्ठ मास में गृह प्रवेश करने से मृत्यु तथा विपत्ति प्राप्ति कि आशंका होती हैं । * आषाढ़ मास में गृह प्रवेश करने से वाहन एवं पशु की होने का भय होता हैं । * श्रावण मास में गृह प्रवेश करने से धन एवं मित्रो बढते हैं एवं लाभ प्राप्त होता हैं । * भाद्रपद मास में गृह प्रवेश करने से मित्रों से क्लेश, दरिद्रता तथा विनाश होता हैं । * आश्विन मास में गृह प्रवेश करने से स्त्री नाश, कलह तथा लड़ाई झगडे होता हैं । * कार्तिक मास में गृह प्रवेश करने से संतान,आरोग्य एवं धन की प्राप्ती होती हैं । * मार्गशीर्ष मास में गृह प्रवेश करने से उत्तम उत्तम अन्न एवं धनकी प्राप्ति होती हैं । * पौष मास में गृह प्रवेश करने से चोरों का भय होता हैं । * माघ मास में गृह प्रवेश करने से अग्नि का भय होता हैं । * फाल्गुन मास में गृह प्रवेश करने से धन तथा सुखकी प्राप्ति और वंशकी वृद्धि होती हैं । वास्तु ग्रन्थों के मत से गृह प्रवेश के लिये आषाढ़ एवं पौषको शुभ और कार्तिकको अशुभ बताया गया है । * ईंट - पत्थर के घर में मासदोषका विचार करना चाहिये । * कच्चे घरो में, घास - फूस एवं लकड़ी के बने घर मास का दोष नहीं लगता । Posted by GURUTVA KARYALAY at 11:24 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Vastu रामचन्द्र स्तुति Ram Stuti , rama chandra stuti रामचन्द्र स्तुति नमामि भक्तवत्सलं कृपालु शील कोमलं भजामि ते पदांबुजं अकामिनां स्वधामदं। निकाम श्याम सुंदरं भवांबुनाथ मन्दरं प्रफुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं॥१॥ प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभोडप्रमेय वैभवं निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोक नायकं। दिनेश वंश मंडनं महेश चाप खंडनं मुनींद्र संत रंजनं सुरारि वृंद भंजनं॥२॥ मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं। नमामि इंदिरा पतिं सुखाकरं सतां गतिं भजे सशक्ति सानुजं शची पति प्रियानुजं॥३॥ त्वदंघ्रि मूल ये नरा: भजन्ति हीन मत्सरा: पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले। विविक्त वासिन: सदा भजंति मुक्तये मुदा निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं॥४॥ तमेकमद्भुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं जगद्गरुं च शाश्व तं तुरीयमेव मेवलं। भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लर्भ स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं॥५॥ अनूप रूप भूपतिं नतोडहमुर्विजा पतिं प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे। पठंति ये स्वतं इदं नरादरेण ते पदं व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति संयुता:॥६॥ इस स्तोत्र का नित्य आदरपूर्वक पाठ करने से व्यक्ति को पद कि निसंदेः प्राप्ति होती हैं Posted by GURUTVA KARYALAY at 10:30 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Ram Monday, May 10, 2010 भौम प्रदोष व्रत 11-मई-2010 भौम प्रदोष व्रत 11-मई-2010 (ऋण मोचन हेतु विशेष लाभदायक) >> प्रदोष व्रत के बारे में अधिक जानकारी हेतु यहा क्लिक करे http://gurutvakaryalay.blogspot.com/2010/03/blog-post_26.html Posted by GURUTVA KARYALAY at 11:51 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Sunday, May 09, 2010 गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:२) Gruha pravesha evm vastu bhag:2, gruh arambha evm vastu part:2 गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:२) शास्त्रोक्त मत से गृहारम्भ या गृहप्रवेश हेतु उत्तम समय तब होता हैं जब सूर्य मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर और कुम्भ इन राशियों में से किसी एक मे होता हैं। और गृहारम्भ या गृहप्रवेश अशुभ होता हैं जब सूर्य मिथुन, कन्या, धनु और मीन - इन राशि में होता हैं। * मेष राशि के सूर्यमें गृहारम्भ करने से शुभ फल प्राप्त होता हैं। * वृष राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से धन की वृद्धि होती हैं । * मिथुन राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से परिवार में मृत्यु होती हैं। * कर्क राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से शुभ फल प्राप्त होता हैं। * सिंह राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से सेवक द्वारा लाभ प्राप्त होता हैं। * कन्या राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से परिवार में रोग होता है। * तुला राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से सभी सुख प्राप्त होता हैं। * वृश्चिक राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से धनकी वृद्धि होती हैं। * धनु राशिके सूर्य में गृहारम्भ सम्मान की हानि होती हैं। * मकर राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से धन की प्राप्ति होती हैं। * कुम्भ राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से रत्न एवं द्रव्य लाभ प्राप्त होता हैं। * मीन राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से रोग तथा भय की प्राप्ति होती हैं। Posted by GURUTVA KARYALAY at 10:54 AM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Vastu पंच महाभूत तत्व एवं वास्तु (भाग:१) pancha mahabhuta tatva evm vaastu bhaga:1, panch mahabhuta tatva or vastu part:1 पंच महाभूत तत्व एवं वास्तु (भाग:१) जिस भूमि पर भवन बनकर तैयार हो जाता है वहा पंचभूत का समनवय होता हैं। जिस प्रकार मानव शरीर में जो पंच माहाभूत (आकश, पृथवी, जल, वायु, अग्नि) तत्व समाहित होते हैं , यह पंच माहाभूत तत्व व्यक्ति द्वारा किये गये कर्म के अनुरुप उसका प्रभाव शुभ-अशुभ व्यक्ति के निवास स्थान पर पड़ता हैं। क्योकि मनुष्य एवं बह्याण्ड की संरचना पंच महाभूतों के आधार पर हुई हैं। यदि प्रकृति के विरूद्ध इन पच महाभूत तत्व का संतुलन बिगड़ जाये तो व्यक्ति द्वारा किये जारहे कर्म गलत दिशामें होते हैं, जिस्से हमारी उर्जा यातो अधिक खर्च होती हैं या उर्जा गलत दिशा में व्यय होक शरीर में अस्वस्थता पैदा होकर शारीरिक संतुलन को बिगाड़ देती है, जिस्से पारिवारिक कलह, आर्थिक तंगी, मानसिक तनाव, अशांति, रोग इत्यादि अनेक प्रकार कि व्याधि उतपन्न होती है। इस लिए यह जरूरी है कि हम पंच महाभूत तत्वों का सन्तुलन रखे तो हमे जीवन में सभी प्रकार से सुख शांति एवं समृद्धि सरलता से प्राप्त होती हैं। भवन निर्माण के बाद पंच तत्वों का गृह में अस्तित्व होता हैं इस लिये यह जरूरी हो जाता हैं कि इन पंच महाभूत तत्वों का सही सन्तुलन बना रहे। अगर यह जरा भी बिगड़ जाए तो भवन मे निवास करने वाला व्यक्ति सुख-शांति से नहीं रह पाएगा। Posted by GURUTVA KARYALAY at 10:06 AM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Vastu Monday, May 03, 2010 गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:१ Gruha pravesha evm vastu bhag:1, gruh arambha evm vastu part:1 गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:१ गृहारम्भ और गृह प्रवेश करते समय अपने कुलदेवता, ईष्ट देवता, गणेश, क्षेत्रपाल, वास्तुदेवता और दिक्पतिकी विधिवत् पूजा करनी चहिये । विद्वान ब्राह्मण, घर बनाने वाले कारीगर, द्विज और शिल्पी को धन, वस्त्र और अलंकार भेट स्वरुप देकर उन्हे विधिवत् सन्तुष्ट करने से घरमें सदा सुख शांति एवं समृद्धि बनी रहती हैं । जिस भवन मे गृहारम्भ या गृहप्रवेश करते समय वास्तुपूजा करता हैं, उस भवन में सर्वदा आरोग्य, पुत्र, धन और धान्य से परिपूर्ण एवं सुखी होता हैं । जिस भवन मे बिना वास्तु पूजा कराके गृहारम्भ और गृह प्रवेश होता हैं उस भवन में रहने वाले व्यक्ति नाना प्रकारके रोग, क्लेश और संकटो से संम्मुखिन होते हैं । Posted by GURUTVA KARYALAY at 11:50 PM 0 comments Links to this post इसे ईमेल करें इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें Facebook पर साझा करें Google Buzz पर शेयर करें Reactions: Labels: Vastu दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् दुर्गा अष्टोत्तर नामावली, durgashtottar shatnama stotram, durga ashtottar namavali दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने। यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी। आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥ पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः। मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥३॥ सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी। अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥ शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्‍‌नप्रिया सदा। सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥५॥ अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती। पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥६॥ अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी। वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥७॥ ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा। चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥८॥ विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा। बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना॥९॥ निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी। मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी॥१०॥ सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी। सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥ अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी। कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः॥१२॥ अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा। महोदरी मुक्त केशी घोररूपा महाबला॥१३॥ अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी। नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥१४॥ शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी। कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥१५॥ य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्। नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति॥१६॥ धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च। चतुर्वर्ग तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम्॥१७॥ कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्। पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम्॥१८॥ तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वै: सुरवरैरपि। राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवापनुयात्॥१९॥ गोरोचनालक्त ककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण। विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः॥२०॥ भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते। विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम्॥२१॥





वास्तु एवं वेध दोष (भाग:२)

द्वार वेध

भवन के मुख्य द्वार के सामने कोई वृक्ष हो तो वृक्ष वेध कहलाता हैं। वृक्ष वेध होने से भवन स्वामी को अनचाहे अपमान एवं बदनामी होना पडता हैं।

भवन के मुख्य द्वार के सामने कोई खंभा या स्तम्भ हो तो स्तम्भ वेध कहलाता हैं। स्तम्भ वेध होने से भवन मे निवास कर्ता के लिये पराजय, धनहानि, स्त्रीपीड़ा कारक होता हैं।

भवन के मुख्य द्वार के सामने कोइ अन्य भवन का द्वार या कोना होने से भी द्वार वेध माना जाता हैं। एसी स्थिति होने से भवन स्वामी को विभिन्न प्रकार के कष्टो से पीडित होने का संकेत हैं।

वेध दोष भवन कि ऊंचाई से दोगुनी ऊंचाई तक के क्षेत्र के भीतर होने से अधिक प्रभावी होता हैं, भवन कि ऊंचाई से दोगुनी ऊंचाई से दूर यदि वेधकारक वस्तु होने पर वेध दोष का प्रभाव कम होता जाता हैं।

मुख्य द्वार के सामने यदि कीचड़, नाली या जल निकास स्थान होने से निवास कर्ता को मानसिक कष्ट, अवसाद तथा धनका अभाव हैं।

मुख्य द्वार के सामने यदि हैंड पंप अथवा नल होने से रोग होने कि संभावना होती हैं।

मुख्य द्वार के सामने शिवालय या मंदिर होना अशुभ मानागया हैं, एसी स्थिती होने से निवास कर्ता के कुल कि हानि होती हैं।

मुख्य द्वार के सामने पालतू पशु बांधने हेतु खूंटा रखने को शास्त्र में कील वेध दोष बताया गया हैं।


गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:४)

Gruha pravesha evm vastu bhag:4, gruh arambha evm vastu part:4


गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:४)

मास कि तिथि एवं गृह प्रवेश

द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी एवं पूर्णिमा - इन तिथियों में गृह प्रवेश करने से शुभ फल प्राप्त होता हैं।

प्रतिपदा को गृह प्रवेश करने से घर में दरिद्रता आति हैं।
चतुर्थी को गृह प्रवेश करने से धन का नाश होता हैं।
अष्टमी को गृह प्रवेश करने से उच्चाटन होता हैं।
नवमी को गृह प्रवेश करने से धन-धान्य का नाश होकर अस्त्र शस्त्र से आघात होने कि संभावना अधिक होती हैं।
चतुर्दशी को गृह प्रवेश करने से संतान एवं घर में स्त्री वर्ग का नाश होता हैं।
अमावस्या को गृह प्रवेश करने से सरकार से परेशानी प्राप्त होती हैं।

साप्ताहिक वार एवं गृह प्रवेश

सोम, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि इन वारों मे गृह प्रवेश करने से उत्तम फल कि प्राप्ति होती हैं ।

रविवार और मंगलवार को गृह प्रवेश या भूमि खोदनेका कार्य करने से अनिष्ट होने कि संभावना अधिक होती हैं।

गृहारम्भके समय कठोर वचन बोलना, थूकना और छींकना अशुभ है ।

विश्वंभरी स्तुति

Visvambhari Stuti, Viswambhari Stuti
विश्वंभरी स्तुति



विश्वंभरी अखिल विश्वतणी जनेता।
विद्या धरी वदनमां वसजो विधाता॥
दुर्बुद्धि दुर करी सद्दबुद्धि आपो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥१॥

भूलो पडि भवरने भटकुं भवानी।
सुझे नहि लगीर कोइ दिशा जवानी॥
भासे भयंकर वळी मनना उतापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥२॥

आ रंकने उगरवा नथी कोइ आरो।
जन्मांध छु जननी हु ग्रही हाथ तारो॥
ना शुं सुणो भगवती शिशुना विलापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥३॥

मा कर्म जन्म कथनी करतां विचारु।
आ सृष्टिमां तुज विना नथी कोइ मारु॥
कोने कहुं कठण काळ तणो बळापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥४॥

हुं काम क्रोध मध मोह थकी भरेलो।
आडंबरे अति धणो मद्थी छकेलो॥
दोषो बधा दूर करी माफ पापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥५॥

ना शास्त्रना श्रवणनु पयःपान पीधु।
ना मंत्र के स्तुति कथा नथी काइ कीधु॥
श्रद्धा धरी नथी कर्या तव नाम जापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥६॥

रे रे भवानी बहु भूल थई ज मारी।
आ जिंदगी थई मने अतिशे अकारी॥
दोषो प्रजाळि सधळा तव छाप छापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥७॥

खाली न कोइ स्थळ छे विण आप धारो।
ब्रह्मांडमां अणु-अणु महीं वास तारो॥
शक्ति न माप गणवा अगणित मापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥८॥

पापो प्रपंच करवा बधी रीते पूरो।
खोटो खरो भगवती पण हुं तमारो॥
जाडयांधकार करी दूर सुबुद्धि स्थापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥९॥

शीखे सुणे रसिक छंद ज एक चित्ते।
तेना थकी त्रिविध ताप टळे खचिते॥
बुद्धि विशेष जगदंब तणा प्रतापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥१०॥

श्री सदगुरु शरनमां रहीने यजुं छुं।
रात्रि दिने भगवती तुजने भजुं छु॥
सदभक्त सेवक तणा परिताप चापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥११॥

अंतर विषे अधिक उर्मि थतां भवानी।
गाऊ स्तुति तव बळे नमीने मृडानी॥
संसारना सकळ रोग समूळ कापो।
माम् पाहि ॐ भगवती भव दुःख कापो ॥१२॥

सर्व रोगनाशक यंत्र

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सर्व रोगनाशक कवच

मनुष्य अपने जीवन के विभिन्न समय पर किसी ना किसी साध्य या असाध्य रोग से ग्रस्त होता हैं।

उचित उपचार से ज्यादातर साध्य रोगो से तो मुक्ति मिल जाती हैं, लेकिन कभी-कभी साध्य रोग होकर भी असाध्या होजाते हैं, या कोइ असाध्य रोग से ग्रसित होजाते हैं। हजारो लाखो रुपये खर्च करने पर भी अधिक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। डॉक्टर द्वारा दिजाने वाली दवाईया अल्प समय के लिये कारगर साबित होती हैं, एसि स्थिती में लाभा प्राप्ति हेरु व्यक्ति एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर के चक्कर लगाने को बाध्य हो जाता हैं।
भारतीय ऋषीयोने अपने योग साधना के प्रताप से रोग शांति हेतु विभिन्न यंत्र, मंत्र एवं तंत्र उल्लेख अपने ग्रंथो में कर मानव जीवन को लाभ प्रदान करने का सार्थक प्रयास हजारो वर्ष पूर्व किया था।

बुद्धिजीवो के मत से जो व्यक्ति जीवनभर अपनी दिनचर्या पर नियम, संयम रख कर आहार ग्रहण करता हैं, एसे व्यक्ति को विभिन्न रोग से ग्रसित होने की संभावना कम होती हैं। लेकिन आज के युग में एसे व्यक्ति भी भयंकर रोग से ग्रस्त होते दिख जाते हैं।

क्योकि समग्र संसार काल के अधीन हैं। एवं मृत्यु निश्चित हैं जिसे विधाता के अलावा और कोई टाल नहीं सकता, लेकिन रोग होने कि स्थिती में व्यक्ति रोग दूर करने का प्रयास तो अवश्य कर सकता हैं।

इस लिये यंत्र मंत्र एवं तंत्र के कुशल जानकार द्वारा योग्य मार्गदर्शन लेकर व्यक्ति रोगो से मुक्ति पाने का या उसके प्रभावो को कम करने का प्रयास भी अवश्य कर सकता हैं।

ज्योतिष विद्या के कुशल जानकर काल पुरुषकी गणना कर अनेक रोगो के रहस्य को उजागर कर सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से रोग के मू्लको पकडने मे सहयोग मिलता हैं, जहा आधुनिक चिकित्सा शास्त्र अक्षम होजाता हैं वहा ज्योतिष शास्त्र द्वारा रोग के मूल को पकड कर उसका निदान करना लाभदायक एवं उपायोगी सिद्ध होता हैं।

हर व्यक्ति में लाल रंगकी कोशिकाए पाइ जाती हैं, जिसका विकास क्रम बद्ध तरीके से होता रहता हैं। जब इन कोशिकाओ के क्रम में परिवर्तन होता है या विखंडिन होता हैं तब व्यक्ति के शरीर में स्वास्थ्य संबंधी विकारो उत्पन्न होते हैं। एवं इन कोशिकाओ का संबंध नव ग्रहो के साथ होता हैं। जिस्से रोगो के होने के कारणा व्यक्तिके जन्मांग से दशा-महादशा एवं ग्रहो कि गोचर में स्थिती से प्राप्त होता हैं।

सर्व रोग निवारण कवच एवं महामृत्युंजय यंत्र के माध्यम से व्यक्ति के जन्मांग में स्थित कमजोर एवं पीडित ग्रहो के अशुभ प्रभाव को कम करने का कार्य सरलता पूर्वक किया जासकता हैं।

जेसे व्यक्ति को ब्रह्मांड कि उर्जा एवं पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल प्रभावीत कर्ता हैं ठिक उसी प्रकार कवच एवं यंत्र के माध्यम से ब्रह्मांड कि उर्जा के सकारात्मक प्रभाव से व्यक्ति को सकारात्मक उर्जा प्राप्त होती हैं जिस्से रोग के प्रभाव को कम कर रोग मुक्त करने हेतु सहायता मिलती हैं।

रोग निवारण हेतु महामृत्युंजय मंत्र एवं यंत्र का बडा महत्व हैं। जिस्से हिन्दू संस्कृति का प्रायः हर व्यक्ति परिचित हैं।

कवच के लाभ :
एसा शास्त्रोक्त वचन हैं जिस घर में महामृत्युंजय यंत्र स्थापित होता हैं वहा निवास कर्ता हो नाना प्रकार कि आधि-व्याधि-उपाधि से रक्षा होती हैं।

पूर्ण प्राण प्रतिष्ठित एवं पूर्ण चैतन्य युक्त सर्व रोग निवारण कवच किसी भी उम्र एवं जाति धर्म के लोग चाहे स्त्री हो या पुरुष धारण कर सकते हैं।

जन्मांगमें अनेक प्रकारके खराब योगो और खराब ग्रहो कि प्रतिकूलता से रोग उतपन्न होते हैं। कुछ रोग संक्रमण से होते हैं एवं कुछ रोग खान-पान कि अनियमितता और अशुद्धतासे उत्पन्न होते हैं। कवच एवं यंत्र द्वारा एसे अनेक प्रकार के खराब योगो को नष्ट कर, स्वास्थ्य लाभ और शारीरिक रक्षण प्राप्त करने हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र सर्व उपयोगी होता हैं।

आज के भौतिकता वादी आधुनिक युगमे अनेक एसे रोग होते हैं, जिसका उपचार ओपरेशन और दवासे भी कठिन हो जाता हैं। कुछ रोग एसे होते हैं जिसे बताने में लोग हिचकिचाते हैं शरम अनुभव करते हैं एसे रोगो को रोकने हेतु एवं उसके उपचार हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र लाभादायि सिद्ध होता हैं।

प्रत्येक व्यक्ति कि जेसे-जेसे आयु बढती हैं वैसे-वसै उसके शरीर कि ऊर्जा होती जाती हैं। जिसके साथ अनेक प्रकार के विकार पैदा होने लगते हैं एसी स्थिती में भी उपचार हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र फलप्रद होता हैं।

जिस घर में पिता-पुत्र, माता-पुत्र, माता-पुत्री, या दो भाई एक हि नक्षत्रमे जन्म लेते हैं, तब उसकी माता के लिये अधिक कष्टदायक स्थिती होती हैं। उपचार हेतु महामृत्युंजय यंत्र फलप्रद होता हैं।

जिस व्यक्ति का जन्म परिधि योगमे होता हैं उन्हे होने वाले मृत्यु तुल्य कष्ट एवं होने वाले रोग, चिंता में उपचार हेतु सर्व रोगनाशक कवच एवं यंत्र शुभ फलप्रद होता हैं।


नोट:- पूर्ण प्राण प्रतिष्ठित एवं पूर्ण चैतन्य युक्त सर्व रोग निवारण कवच एवं यंत्र के बारे में अधिक जानकारी हेतु हम से संपर्क करें।

त्रिखला दोष

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त्रिखला दोष


जिस दंपती को तीन लडकियों के पैदा होने के बाद लडका पैदा हो जाता हैं या तीन लडकों के पैदा होने बाद लडकी पैदा हो जाती हैं तो उसे त्रिखला दोष होता है।

जिस दंपती त्रिखला दोष से युक्त होते हैं उन्हें जीवन में काफी परेशानि एवं संकटो से ग्रस्त देखा गया हैं।

त्रिखला दोष से मुख्य समस्या पारिवारिक मनमुटाव पैदा होता हैं, जिस के फल स्वरुप पारिवार में अलगाव कि स्थिती उत्पन्न होती हैं। इस्के अतिरिक्त दंपती को अपने वैवाहिक जीवन में पूर्ण सुख प्राप्त नहीं हो पाता।

ज्यादातर बच्चों का स्वास्थ्य़ भी खराब रहता हैं जिस्से दंपती बच्चों भी सुख देने में असमर्थ होते हैं।

उपाय:- त्रिखला दोष कि शान्ति हेतु महामृत्युंजय मंत्र-यंत्र का प्रयोग करें।

वास्तु एवं वेध दोष (भाग:१)

Vastu evm vedha dosha (bhag:1)


वास्तु एवं वेध दोष (भाग:१)

वास्तु ग्रंथों में अनेक प्रकार के वेध दोष बताए गए हैं। जिसमें से कुछ वेध दोष तो प्रत्यक्ष होते हैं, जो सरलता से दिखाई देते हैं। और कुछ सरलता से नहीं दिखते। दिखाई देने वाले वेधों की पहचान कर उसका निदान तो आसानी से किया जासकता हैं। लेकिन नहीं दिखाई देने वाले वेधों के दोषो कि पहचान कुशल वास्तु विशेषज्ञ हि कर सकते हैं।

वास्तु सिद्धान्त में वेध दोष एक महत्वपूर्ण दोष मानागया हैं, जिसकी उचित एवं शास्त्रीय जानकारी अति महत्वपूर्ण हैं।

भवन कि दिवारों के कोण एक समान होतो शुभ माना जाता हैं और यदि चारों कोनो में से एक भी छोडा या बडा होतो तो वेध दोष माना जाता हैं।

भवन कि दिवार के कोने चार से ज्यादा होना वेध दोष माना जाता हैं। इस प्रकार के वेध दोष वाले भवन मे निवास कर्ता को आकस्मीक दुर्घटना एवं शस्त्र पीड़ा होने कि संभावना अधिक होती हैं।

मार्ग वेध
यदि सड़क का रास्ता ठीक आपके मुख्या द्वार पर आकर समाप्त होता हओतो मार्ग वेध माना जाता हैं। क्योकि सड़क पर वाहन एवं अन्य जीव के गति करने से अक्सर ऊर्जा का क्षेत्र गतिशील रहता हैं, एवं उस मार्ग की गतिशीलता से उतपन्न होने वाली उर्जा मार्ग से गति करने वाले जीव एवं वाहन कि संख्या और सफ्तार पर निर्भर करती हैं। यदि उर्जा कि गति तिव्र हैं तो निवास स्थान पर उर्जा का आगमन होकर वहा कि सकारात्मक तरंगों को बाधित कर नकारात्मक प्रभाव उतपन्न करती हैं, जिस्से भवन में अशांति और बेचैनी हर समय बनी रहती हैं।

वेध दोष का प्रभाव भवन के मुख्य द्वार के खुले रहने के समय पर निर्भर करता हैं। यदि द्वार अधिक समय तक खुला रहता हैं, तो अधिक नकारात्मक उर्जा प्रवेश करेगे और कम समय के लिये खुल ने से वेह दोष का प्रभाव कम रहता हैं।

भवन के मुख्य द्वार एसा बनाये जिस्से द्वार बंध होने से वायु का आवागम न हो, द्वार बंध होने से वायु का आवागम होने से दोष का प्रभाव तीव्र होते देखे गये हैं।

द्वार दोष कम करने हेतु मुख्य द्वार पर शुभ चिन्ह वाले तोरण या कलश, स्वास्तिक इत्यादि बनवाने से भी यह द्वार दोष कम होता हैं, द्वार के चारों ओर चांदी का अखंडित तार बांध ने से भी मार्ग वेध का प्रभाव कम हो जाता हैं।

गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:३

Gruha pravesha evm vastu bhag:3, gruh arambha evm vastu part:3

  
गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:३

 

 
नक्षत्र एवं गृह प्रवेश
अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुण्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, उत्तराषाढा़, श्रवण, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्र में गृह प्रवेश श्रेष्ठ माना गया हैं ।


  
मास एवं गृह प्रवेश
चैत्र, ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद, आश्विन, पौष और माघ - मास मे गृह प्रवेश करना माना गया हैं।
वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्श और फाल्गुन - मास में गृह प्रवेश श्रेष्ठ माना गया हैं ।

 
मास के शुक्ल पक्ष में गृह प्रवेश करने से सुख कि प्राप्ति होती हैं और कृष्ण पक्ष में गृह प्रवेश करने से चोर-डाकु द्वारा धन हानि होती हैं।

 
  • चैत्र मास में गृह प्रवेश करने से रोग और शोक उत्पन्न होते हैं ।
  • वैशाख मास में गृह प्रवेश करने से धन, वैभव, संतान एवं आरोग्य की प्राप्ति होती हैं ।
  • ज्येष्ठ मास में गृह प्रवेश करने से मृत्यु तथा विपत्ति प्राप्ति कि आशंका होती हैं ।
  • आषाढ़ मास में गृह प्रवेश करने से वाहन एवं पशु की होने का भय होता हैं ।
  • श्रावण मास में गृह प्रवेश करने से धन एवं मित्रो बढते हैं एवं लाभ प्राप्त होता हैं ।
  • भाद्रपद मास में गृह प्रवेश करने से मित्रों से क्लेश, दरिद्रता तथा विनाश होता हैं ।
  • आश्विन मास में गृह प्रवेश करने से स्त्री नाश, कलह तथा लड़ाई झगडे होता हैं ।
  • कार्तिक मास में गृह प्रवेश करने से संतान,आरोग्य एवं धन की प्राप्ती होती हैं ।
  • मार्गशीर्ष मास में गृह प्रवेश करने से उत्तम उत्तम अन्न एवं धनकी प्राप्ति होती हैं ।
  • पौष मास में गृह प्रवेश करने से चोरों का भय होता हैं ।
  • माघ मास में गृह प्रवेश करने से अग्नि का भय होता हैं ।
  • फाल्गुन मास में गृह प्रवेश करने से धन तथा सुखकी प्राप्ति और वंशकी वृद्धि होती हैं ।

 

वास्तु ग्रन्थों के मत से गृह प्रवेश के लिये आषाढ़ एवं पौषको शुभ और कार्तिकको अशुभ बताया गया है ।

 
*  ईंट - पत्थर के घर में मासदोषका विचार करना चाहिये ।

कच्चे घरो में, घास - फूस एवं लकड़ी के बने घर मास का दोष नहीं लगता ।

रामचन्द्र स्तुति

Ram Stuti , rama chandra stuti
रामचन्द्र स्तुति


नमामि भक्तवत्सलं कृपालु शील कोमलं
भजामि ते पदांबुजं अकामिनां स्वधामदं।
निकाम श्याम सुंदरं भवांबुनाथ मन्दरं
प्रफुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं॥१॥

प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभोडप्रमेय वैभवं
निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोक नायकं।
दिनेश वंश मंडनं महेश चाप खंडनं
मुनींद्र संत रंजनं सुरारि वृंद भंजनं॥२॥

मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं।
नमामि इंदिरा पतिं सुखाकरं सतां गतिं
भजे सशक्ति सानुजं शची पति प्रियानुजं॥३॥

त्वदंघ्रि मूल ये नरा: भजन्ति हीन मत्सरा:
पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले।
विविक्त वासिन: सदा भजंति मुक्तये मुदा
निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं॥४॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं
जगद्गरुं च शाश्व तं तुरीयमेव मेवलं।
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लर्भ
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं॥५॥

अनूप रूप भूपतिं नतोडहमुर्विजा पतिं
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे।
पठंति ये स्वतं इदं नरादरेण ते पदं
व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति संयुता:॥६॥


इस स्तोत्र का नित्य आदरपूर्वक पाठ करने से व्यक्ति को पद कि निसंदेः प्राप्ति होती हैं

गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:२)

Gruha pravesha evm vastu bhag:2, gruh arambha evm vastu part:2

 
गृह प्रवेश एवं वास्तु (भाग:२)

शास्त्रोक्त मत से गृहारम्भ या गृहप्रवेश हेतु उत्तम समय तब होता हैं जब सूर्य मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर और कुम्भ इन राशियों में से किसी एक मे होता हैं। और गृहारम्भ या गृहप्रवेश अशुभ होता हैं जब सूर्य मिथुन, कन्या, धनु और मीन - इन राशि में होता हैं।

 
  • मेष राशि के सूर्यमें गृहारम्भ करने से शुभ फल प्राप्त होता हैं।
  • वृष राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से धन की वृद्धि होती हैं ।
  • मिथुन राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से परिवार में मृत्यु होती हैं।
  • कर्क राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से शुभ फल प्राप्त होता हैं।
  • सिंह राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से सेवक द्वारा लाभ प्राप्त होता हैं।
  • कन्या राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से परिवार में रोग होता है।
  • तुला राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से सभी सुख प्राप्त होता हैं।
  • वृश्चिक राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से धनकी वृद्धि होती हैं।
  • धनु राशिके सूर्य में गृहारम्भ सम्मान की हानि होती हैं।
  • मकर राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से धन की प्राप्ति होती हैं।
  • कुम्भ राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से रत्न एवं द्रव्य लाभ प्राप्त होता हैं।
  • मीन राशि के सूर्य में गृहारम्भ करने से रोग तथा भय की प्राप्ति होती हैं।

पंच महाभूत तत्व एवं वास्तु (भाग:१)

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पंच महाभूत तत्व एवं वास्तु (भाग:१)

जिस भूमि पर भवन बनकर तैयार हो जाता है वहा पंचभूत का समनवय होता हैं। जिस प्रकार मानव शरीर में जो पंच माहाभूत (आकश, पृथवी, जल, वायु, अग्नि) तत्व समाहित होते हैं , यह पंच माहाभूत तत्व व्यक्ति द्वारा किये गये कर्म के अनुरुप उसका प्रभाव शुभ-अशुभ व्यक्ति के निवास स्थान पर पड़ता हैं। क्योकि मनुष्य एवं बह्याण्ड की संरचना पंच महाभूतों के आधार पर हुई हैं।

यदि प्रकृति के विरूद्ध इन पच महाभूत तत्व का संतुलन बिगड़ जाये तो व्यक्ति द्वारा किये जारहे कर्म गलत दिशामें होते हैं, जिस्से हमारी उर्जा यातो अधिक खर्च होती हैं या उर्जा गलत दिशा में व्यय होक

शरीर में अस्वस्थता पैदा होकर शारीरिक संतुलन को बिगाड़ देती है, जिस्से पारिवारिक कलह, आर्थिक तंगी, मानसिक तनाव, अशांति, रोग इत्यादि अनेक प्रकार कि व्याधि उतपन्न होती है।

इस लिए यह जरूरी है कि हम पंच महाभूत तत्वों का सन्तुलन रखे तो हमे जीवन में सभी प्रकार से सुख शांति एवं समृद्धि सरलता से प्राप्त होती हैं।

भवन निर्माण के बाद पंच तत्वों का गृह में अस्तित्व होता हैं इस लिये यह जरूरी हो जाता हैं कि इन पंच महाभूत तत्वों का सही सन्तुलन बना रहे। अगर यह जरा भी बिगड़ जाए तो भवन मे निवास करने वाला व्यक्ति सुख-शांति से नहीं रह पाएगा।


गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:१

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गृह प्रवेश एवं वास्तु भाग:१

गृहारम्भ और गृह प्रवेश करते समय अपने कुलदेवता, ईष्ट देवता, गणेश, क्षेत्रपाल, वास्तुदेवता और दिक्पतिकी विधिवत् पूजा करनी चहिये ।

विद्वान ब्राह्मण, घर बनाने वाले कारीगर, द्विज और शिल्पी को धन, वस्त्र और अलंकार भेट स्वरुप देकर उन्हे विधिवत् सन्तुष्ट करने से घरमें सदा सुख शांति एवं समृद्धि बनी रहती हैं ।

जिस भवन मे गृहारम्भ या गृहप्रवेश करते समय वास्तुपूजा करता हैं, उस भवन में सर्वदा आरोग्य, पुत्र, धन और धान्य से परिपूर्ण एवं सुखी होता हैं ।

जिस भवन मे बिना वास्तु पूजा कराके गृहारम्भ और गृह प्रवेश होता हैं उस भवन में रहने वाले व्यक्ति नाना प्रकारके रोग, क्लेश और संकटो से संम्मुखिन होते हैं ।

दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्

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दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्



शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥

सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥३॥

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्‍‌नप्रिया सदा।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥५॥

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती।
पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥६॥

अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥७॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च  पुरुषाकृतिः॥८॥

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना॥९॥

निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी॥१०॥

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः॥१२॥

अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा।
महोदरी मुक्त केशी घोररूपा महाबला॥१३॥

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥१४॥

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥१५॥

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति॥१६॥

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च।
चतुर्वर्ग तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम्॥१७॥

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम्॥१८॥

तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वै: सुरवरैरपि।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवापनुयात्॥१९॥

गोरोचनालक्त ककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः॥२०॥

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते।
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम्॥२१॥

वाल्मीकि कृत गणेश स्तवन



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गणेश स्तवन

श्री आदि कवि वाल्मीकि उवाच

चतु:षष्टिकोटयाख्यविद्याप्रदं त्वां सुराचार्यविद्याप्रदानापदानम्।
कठाभीष्टविद्यार्पकं दन्तयुग्मं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

स्वनाथं प्रधानं महाविघन्नाथं निजेच्छाविसृष्टाण्डवृन्देशनाथम्।
प्रभुं दक्षिणास्यस्य विद्याप्रदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

विभो व्यासशिष्यादिविद्याविशिष्टप्रियानेकविद्याप्रदातारमाद्यम्।
महाशाक्तदीक्षागुरुं श्रेष्ठदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

विधात्रे त्रयीमुख्यवेदांश्च योगं महाविष्णवे चागमाञ्ा् शंकराय।
दिशन्तं च सूर्याय विद्यारहस्यं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

महाबुद्धिपुत्राय चैकं पुराणं दिशन्तं गजास्यस्य माहात्म्ययुक्तम्।
निजज्ञानशक्त्या समेतं पुराणं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

त्रयीशीर्षसारं रुचानेकमारं रमाबुद्धिदारं परं ब्रह्मपारम्।
सुरस्तोमकायं गणौघाधिनाथं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

चिदानन्दरूपं मुनिध्येयरूपं गुणातीतमीशं सुरेशं गणेशम्।
धरानन्दलोकादिवासप्रियं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

अनेकप्रतारं सुरक्ताब्जहारं परं निर्गुणं विश्वसद्ब्रह्मरूपम्।
महावाक्यसंदोहतात्पर्यमूर्ति कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥

इदं ये तु कव्यष्टकं भक्तियुक्तास्त्रिसंध्यं पठन्ते गजास्यं स्मरन्त:।
कवित्वं सुवाक्यार्थमत्यद्भुतं ते लभन्ते प्रसादाद् गणेशस्य मुक्तिम्॥

॥इति श्री वाल्मीकि कृत श्रीगणेश स्तोत्र संपूर्णम्॥


फल: जो व्यक्ति श्रद्धा भाव से तीनोकाल सुबह संध्या एवं रात्री के समय वाल्मीकि कृत श्रीगणेश का स्तवन करते उन्हे सभी भओतिक सुखो कि प्राप्ति होकर उसे मोक्ष को प्राप्त कर लेता हैं, एसा शास्रोक्त वचन हैं ।


संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत

संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत

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ऋणमोचक मंगल स्तोत्र

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ऋणमोचक मंगल स्तोत्र

श्रीगणेशाय नमः

मङ्गलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रदः।
स्थिरासनो महाकयः सर्वकर्मविरोधकः ॥१॥

लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां कृपाकरः।
धरात्मजः कुजो भौमो भूतिदो भूमिनन्दनः॥२॥

अङ्गारको यमश्चैव सर्वरोगापहारकः।
व्रुष्टेः कर्ताऽपहर्ता च सर्वकामफलप्रदः॥३॥

एतानि कुजनामनि नित्यं यः श्रद्धया पठेत्।
ऋणं न जायते तस्य धनं शीघ्रमवाप्नुयात्॥४॥

धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं प्रणमाम्यहम्॥५॥

स्तोत्रमङ्गारकस्यैतत्पठनीयं सदा नृभिः।
न तेषां भौमजा पीडा स्वल्पाऽपि भवति क्वचित्॥६॥

अङ्गारक महाभाग भगवन्भक्तवत्सल।
त्वां नमामि ममाशेषमृणमाशु विनाशय॥७॥

ऋणरोगादिदारिद्रयं ये चान्ये ह्यपमृत्यवः।
भयक्लेशमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥८॥

अतिवक्त्र दुरारार्ध्य भोगमुक्त जितात्मनः।
तुष्टो ददासि साम्राज्यं रुश्टो हरसि तत्ख्शणात्॥९॥

विरिंचिशक्रविष्णूनां मनुष्याणां तु का कथा।
तेन त्वं सर्वसत्त्वेन ग्रहराजो महाबलः॥१०॥

पुत्रान्देहि धनं देहि त्वामस्मि शरणं गतः।
ऋणदारिद्रयदुःखेन शत्रूणां च भयात्ततः॥११॥

एभिर्द्वादशभिः श्लोकैर्यः स्तौति च धरासुतम्।
महतिं श्रियमाप्नोति ह्यपरो धनदो युवा॥१२॥

॥इति श्री ऋणमोचक मङ्गलस्तोत्रम् सम्पूर्नम्॥


व्रत (उपवास) एवं ज्योतिष

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उपवास एवं ज्योतिष

पोस्ट सौजन्य: स्वस्तिक

व्यक्ति कि जन्म कुंडली के अनुसार जो ग्रह पीडा कारक या के दुःख दायी हो, तो ग्रहो से संबंधित वार के अनुशार व्रत करना चाहिये। ग्रह से संबंधित वार का व्रत करने से ग्रह अपना अशुभ प्रभाव दूर कर शुभ प्रभाव देने हेतु मजबूर जाते हैं, जैसे दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति को यदि हम दो हाथ जोड कर प्रणाम कर दे तो उसका भी हृदय परिवर्तन हो जाता हैं। थिक उसी प्रकार यदि प्रतिकूल ग्रहो के दुष्ट प्रभाव को उस ग्रह कि पूजा-अर्चना, मंत्र जाप या व्रत उपवास करने से ग्रहो के भी अशुभ प्रभाव स्वतः दूर हो जाते हैं।

रविवार का व्रत
रविवार का व्रत सूर्य ग्रह को प्रसन्न करने हेतु किया जाता हैं। सूर्य का व्रत करने से हडीया मजबूत होती हैं, पेट संबंधी सभी रोगो का विनाश होता हैं, आंखो कि रोशनी बढती हैं, व्यक्ति का साहर एवं क्षमता में वृद्धि होकर उसका यश चारों और बढता हैं। रविवार का व्रत करने से सूर्य के प्रभाव में आने वाले सभी व्यवसाय एवं वस्तुओ से लाभ प्राप्त होता हैं।

सोमवार का व्रत
सोमवार का व्रत चंद्र ग्रह को प्रसन्न करने हेतु किया जाता हैं। जिस्से व्यक्तिने फेफडे के रोग, दमा, मानसिक रोग से मुक्ति मलती हैं।
व्यक्तिनी चंलता दूर होती हैं, नशे कि लत छुडाने हेतु लाभ प्राप्त होता हैं, स्त्रीओं में मासिक रक्त-स्त्राव कि पीडा कम होती हैं। सोमवार का व्रत शिव को प्रिय हैं इस लिये अविवाहित लडकीयो कें १६ सोमवार का व्रत करने से उत्तम वर कि प्राप्ति होती हैं। सोमवार का व्रत करने से चंद्र के प्रभाव में आने वाले सभी व्यवसाय एवं वस्तुओ से लाभ प्राप्त होता हैं।

मंगलवार का व्रत
मंगल का व्रत मंगल ग्रह को प्रसन्न करने हेतु किया जाता हैं। जिस का व्यक्ति स्वभाव उग्र या हिंसात्मक, अधिक गुस्से वाला हो उनके मंगलवार का व्रत करने से मन शांत होता हैं। मंगलवार का व्रत गणपतीजी, हनुमानजी को प्रसन्न करने हेतु भी किया जाता हैं। मंगलवार का व्रत करने से भूत-प्रेत बाधा दूर होती हैं, व्यक्ति के सभी संकट दूर होजाते हैं। अविवाहित लडको के व्रत करने से
उसकि बुद्धि और बल का विकास होता हैं। मंगलवार का व्रत करने से मंगल के प्रभाव में आने वाले सभी व्यवसाय एवं वस्तुओ से लाभ प्राप्त होता हैं।

बुधवार का व्रत
बुधवार का व्रत बुध ग्रह को प्रसन्न करने हेतु किया जाता हैं। बुधवार का व्रत व्यवसाय करने वालो हेतु लाभदायी होता हैं। बुधवार का व्रत गणेश जी एवं मां दुर्गा कि कृपा प्राप्ति हेतु किया जाता हैं। इस व्रत के करने से बुद्धिका विकास होता हैं, इस दिन व्रत के साथ दुर्गा सप्तशतीका पाठ करने से मनोवांछित फल कि प्राप्ति होती हैं। बुधवार का व्रत करने से बुध के प्रभाव में आने वाले सभी व्यवसाय एवं वस्तुओ से लाभ प्राप्त होता हैं।

गुरुवार का व्रत
गुरुवार का व्रत बृहस्पति ग्रह को प्रसन्न करने हेतु किया जाता हैं। गुरुवार का व्रत करने से धन - संपत्ति कि प्राप्ति होती हैं घर में सुख-शांति और समृद्धि बढती हैं। लडकी के विवाह में आरही बाधाएं दूर होती हैं। गुरुवार का व्रत करने से बृहस्पति के प्रभाव में आने वाले सभी व्यवसाय एवं वस्तुओ से लाभ प्राप्त होता हैं।

शुक्रवार का व्रत
शुक्रवार का व्रत शुक्र ग्रह को प्रसन्न करने हेतु किया जाता हैं। शुक्रवार का व्रत करने से व्यक्ति के सौंदर्य में वृद्धि होती हैं, गुप्त रोगोमें लाभ होता हैं, भोग-विलास कि चिज वस्तु में वृद्धि होती हैं। शुक्रवार का व्रत करने से शुक्र के प्रभाव में आने वाले सभी व्यवसाय एवं वस्तुओ से लाभ प्राप्त होता हैं।

शनिवार का व्रत
शनिवार का व्रत शनि ग्रह को प्रसन्न करने हेतु किया जाता हैं। शनिवार का व्रत करने से संपत्ति में वृद्धि होती हैं, खोया हुवा धन पूनः प्राप्त होता हैं। शिक्षा प्राप्ति में आरहे बाधा विघ्न दूर होते हैं। पेटा और पैर के रोग में लाभ प्राप्त होता हैं, पूराने रोग भी थिक होजाते हैं। शनिवार का व्रत करने से शनि के प्रभाव में आने वाले सभी व्यवसाय एवं वस्तुओ से लाभ प्राप्त होता हैं।

इस प्रकार ग्रहो के शुभ प्राभाव से निश्चिंत लाभ प्राप्त हो्ता हैं इस में जरा भी संदेह नहीं हैं, पूर्ण आस्था एवं विश्वास से किया गया व्रत अधिक प्रभाव शाली होते हैं।

  • व्रत के दिन सुबह या रात्री एक समय सात्विक भोजन करें।
  • कुछ व्रत में फलाहार कर सकते हैं एवं दूध-चाय-कोफी पीसकते हैं।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करें।
  • नशे से परहेज करें।

चित्र एवं वास्तु भाग:१

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चित्र एवं वास्तु भाग:१

भवनो में चित्रों का उपयोग अति प्राचीन काल से चला आरहा हैं। वास्तु शास्त्र के विद्वानो ने भवन में चित्रो कि सही दिशा का चुनाव करने से शुभा फलो कि प्राप्ति होती हैं, कई चित्रो में एवं अशुभा प्रभावो को कम करने में भी समर्थ होते हैं। वास्तु शास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में चित्रों के माध्यम से वास्तु के अनेक दोषों को दूर करने हेतु उपाय बताये गये हैं।

उचित जानकारी के अभाव में लोग अपनी इच्छा के अनुसार कहीं भी किसी भी प्रकर के चित्र लगा लेते हैं, जिस्से विपरीत परिणाम प्राप्त होते देखे गये है।

भवन को वास्तु दोषों से मुक्त रखने हेतु कौन से चित्र कहां लगाने से शुभ-अशुभा होता हैं उसे जान ना अति आवश्यक हैं।


  • धन प्राप्ति हेतु भवन में लक्ष्मी कि से खुले पैरो वाला फोटो लगाये।

  • जिनका मन हमेशा अशांत रहता हो उसे उत्तर पूर्व में बगुले का चित्र लगाना चाहिए, जो ध्यान की मुद्रा में हो।

  • भवन में देवी-देवता के चित्र लगान शुभा होता हैं।

  • देवी-देवता के पासमें अपने स्वर्गीय परिजनों के फोटो नहीं लगाने चाहिए।

  • स्वर्गीय परिजनों के फोटो लगाने हेतु पूर्व या उत्तर दिशा की दीवारों का प्रयोग करना चाहिए।

  • अध्ययन कक्ष में सरस्वती माता एवं गुरुजनों के चित्र लगाना शुभ होता हैं।

  • गुरु-संतो-ऋषि मुनि के आदर्शवादी चित्र आपकी बेठक से पीछे लगाने से साहस कि वृद्धि होती हैं।

  • पर्वत के चित्र भी आपकी पीठ के पीछे लगाये।

  • जल, जलाशय, झरने का चित्र उत्तर पूर्व में शुभ होता हैं।

  • परिवार में कलह होने पर सभी सदस्यो कि एक साथ खिची हुइ फोटो नैऋत्य कोण में लगाये।

  • भवन में युद्ध, लड़ाई-झगड़े, हिंसक पशु-पक्षियों के चित्र व मूर्तियाँ नहीं रखना चाहिए, इस्से भवन में क्लेश बढता हैं।

  • भयानक चित्र , पेंटिंग या मूर्ति आदि नहीं लगाने से छोटे बच्चे भय ग्रस्त होते देखा गया हैं।

धनवंतरि स्तोत्रम्

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॥ धनवंतरि स्तोत्रम्॥

ॐ शंखम् चक्रम् जलौकाम् दधदमृतघटम् चारुदोर्भिश्चतु्र्भिः
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम्।

कालाम्भोदोज्ज्वलान्गम् कटितटविलस्च्चारुपीताम्बराढयम्
वन्दे धनवंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम्॥

॥इति श्री धनवंतरि स्तोत्रम् संपूर्णम्॥

हस्त रेखा एवं रोग (भाग:2)

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हस्त रेखा एवं रोग (भाग:2)

* हृदय रेख पर काला बिंदु होना, या आयु रेखा पर नीला धब्बा हो, या हाथ में स्वास्थ्य रेखाटूटी-फूटी हो, या मस्तक रेखा के मध्य में काला धब्बा हो तो व्यक्ति को ज्वर से पीड़ा होती हैं।
* यदि चंद्र पर्वत पर गहरी धारियां हों, या मस्तक रेखा धुमावदार या टूटी हुई हो, या मस्तक रेखा पर क्रॉस का चिन्ह हो, या मस्तक रेखा का शनि पर्वत के निकट अंत होती हों , तो व्यक्ति की मानसिक बीमारी से ग्रसित होता हैं।
* मस्तक रेखा शनि पर्वत के नीचे टूट कर खत्म होती हो, चंद्र पर्वत पर टेढी-मेढी रेखाए हों, हृदय रेखा जंजीर के समान हों कर अस्पष्ट हो, तो व्यक्ति
को पथरी रोग होने कि संभावना रहती हैं।
* यदि हथेली कि रेखाएं पीली हो, या गुरु पर्वत अधिक उन्नत हुआ हो, या नख लंबे एवं काले हो,मस्तक रेखा और शनि पर्वत के नीचे कि रेखा जंजीरनुमा हो, तीनों मुख्य रेखाओं को कोई रेखा काट रही हो, तो व्यक्ति को क्षय रोग एवं फेफड़ों से संबंधित रोग हो जाता हैं।
* शनि पर्वत पर जाली हो, या कोई रेखा आयु रेखा एवं मस्तक रेखा को काटकर जाली को छुती हो, या चंद्रमा पर्वत पर क्रॉस हो, चंद्रमा पर्वत पर अस्त-व्यस्त रेखाएं हों, स्वास्थ्य रेख धुमती हुइ शुक्र पर्वत से जुडती हुइ कोई रेखा आयु रेखा को काटकर मस्तक रेखा को काटती हुई हृदय रेखा से मिलती हो, तो व्यक्ति मधुमेह से पीड़ित रहता हैं।
* यदि हथेली अधिक पतली एवं लंबी हो, अंगुलियां भी अधिक लचीली हो, या हथेली से थोडि बड़ी हो, या मस्तक रेखा तथा हृदय रेखा के बीच में अधिक अंतर हो, ग्रह पर्वतों की मुडने वाली ऊर्ध्वागामी रेखाएं अधिक हो, तो व्यक्ति मस्तक ज्वर से पीड़ित होता हैं।
* यदि चंद्र पर्वत काफी उन्नत हो चंद्र पर्वत के नीचे का भाग पर काफी रेखाएं हों, आयु रेखा को छुती हुई कोई रेखा चंद्र पर्वत की ओर जा रही हो, तो व्यक्ति व्यक्ति को मूत्र संबंधी बीमारियां पीड़ित करती हैं।

कोर्ट-केश एवं ज्योतिष (भाग:२)

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कोर्ट-केश एवं ज्योतिष (भाग:२)

पोस्ट सौजन्य: चिंतन जोशि, स्वस्तिक,


न्यायालय क्षेत्र कोनसा होगा ?
जन्म कुन्डली या प्रश्न कुन्डली में शनि कि स्थिती से व्यक्ति उच्च न्यायालय में जायगा या नीचें कि अदालत में जायेगा इसका पता लगाने हेतु शनि कि उच्च एवं नीच भावों में स्थिती से लगाया जाता हैं यदि शनि उच्च है तो न्याय उच्च नयायालय से प्राप्त होने के योग बनाता हैं एवं नीचस्थ हैं तो नीचे कि नयायालय में न्याय प्राप्ति हेतु चक्कर लगाना पडता हैं।

नोट:यदि शनि पर मित्र ग्रहो के अधिक प्रभाव में होतो मामला ग्राम-पंचायत, पुलिस थाना या आपस में हि सुलझ जाते देखे गये हैं।



वकील केसा मिलेगा ?
जन्म कुन्डली या प्रश्न कुन्डली के माध्यम से न्याय प्राप्ति हेतु वकील केसा मिलेगा? इसका पता भी लगाय जासकता हैं।
जन्म कुन्डली या प्रश्न कुन्डली में शनि एवं केतु के यदि अच्छि स्थिती में होतो वकील उत्तम मिलता हैं एवं न्याय शीध्र प्राप्त होने के योग प्रबल बनते हैं। और यदि शनि एवं केतु खराब स्थिती में हो, तो शनि एवं केतु कि स्थिती जब तक अनुकूल नहीं होती तब तक या तो वकिल बार-बार बदलने पडते हैं यातो परेशान करते रेहते हैं।


जज केसा होगा?
जन्म कुन्डली या प्रश्न कुन्डली में गुरु (बृहस्पति) कोन से भाव में स्थित होकर कितना बलशाली हैं. कौन से ग्रहो पर गुरु द्रष्टि डाल रहा और हैं और गुरु किन ग्रहो से द्रष्ट हैं जज का अंतिम निर्णय उसी के अनुरुप प्रदान होता हैं।

(क्रमश: ......)

अधिक जानकारी हेतु या उपाय जानने हेतु आप हमसे संपर्क कर सकते हैं।


पंच महाभूत तत्व एवं वास्तु (भाग:२)

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पंच महाभूत तत्व एवं वास्तु (भाग:२)

पृथ्वी तत्व
पृथ्वी भी सौरमण्डल के अन्य ग्रहों मे से एक हैं। सौरमण्डल के सभी ग्रह सूर्य के अंश हैं, सभी ग्रह कि उत्पत्ति सूर्य से टूटने के बाद हुई हैं, उसी प्रकार पृथ्वी कि उत्पत्ति भी सूर्य के अंश से टूटकर लाखों वर्ष पूर्व हुई हैं। पृथ्वी एवं सौरमण्डल के अन्य सभी ग्रह सूर्य से टूट कर उसके इर्द-र्गिद घुमते हुए धीरे-धीरे सूर्य से दूर होते गयें एवं धीरे-धीरे ठंडे होते गएं। पृथ्वी सूर्य के चक्कर काटने के साथ-साथ अपनी निश्चित धुरी पर 23 डिग्री मे निरंतर घूम रही हैं। पृथ्वी पर पानी, गुरूत्वाकर्षण शक्ति तथा दक्षिण-उत्तर ध्रुविय तरंगे पृथ्वी पर एवं पृथ्वी से थोडी दूर तक सभी जीव-निर्जीव वस्तुओं को प्रभावित करती हैं। परंतु अन्य सभी ग्रहो से विपरीत पृथ्वी पर लम्बे समय तक रसायनिक क्रियाओ के फल स्वरूप पृथ्वी पर प्राकृतिक स्थलों, पर्वतों, नदियों व मैदानों आदि का जन्म हुआ, जिस्से धीरे-धीरे पृथ्वी पर जीव विकसीत होने लगे जो अन्य किसी ग्रह पर जीव के अधिक विकसीत होने के पुख्ता सबुन न होकर अभी तक सिर्फ रहस्य का विषय बन कर रह गया हैं।

इन सभी ग्रहो में सिर्फ और सिर्फ पृथ्वी ही जीवनदायिनी और पालनहार हैं। पृथ्वी कि इसी अद्वितिय क्षमता के कारण आज पृथ्वी पर जीव के निवास हेतु भवन निर्माण का कार्य होता हैं, वास्तु सिद्धांत के अनुशार पंच माहाभूत तत्व के महत्व पूर्ण तत्व पृथ्वी तत्व के बिना भवन निर्माण संभव नही हो सकता। इस लिये वास्तु के प्राचीन ग्रन्थों मे पृथ्वी की महवत्ता को ध्यान में रख कर भवन निर्माण करने पर जोर दियागया हैं।

इस लिये हमारी संस्कृति में धरति को मां कहाजाता हैं क्योकि यह समारा भरण पोषण एवं पालन करती हैं इसी लिये गृह निर्माण से पूर्व सर्व प्रथम भूमि पूजन करने का विधान हैं।



जल तत्व
जल ही जीवन है इस बात से हर कोई परिचित हैं, क्योकि हर कोइ जानता हैं हर जीव किसी ना किसी रुप से जल तत्व से जुडा हुवा हैं एवं बगैर जल के किसी जीव का अस्तित्व लम्बे समय तक नहीं रह सकता इसी प्रकार वास्तु भी पूर्णतः जल तत्व से जुडा हुवा हैं, एवं मनुष्य को अत्याधिक प्रभावित करता हैं।
सृष्टि का मुख्य आधार जलचक्र ही हैं। सागर, नदियों, नहरों, तालाबो इत्यादि का जल वाष्प बनकर वायुमंडल से होते हुए आकाश में बादल के रूप मे निर्मित होकर वर्षा के स्वरुप में पूनः जल रूप में पृथ्वी पर आ जाता हैं। इसी कारण से जीवन चक्र कायम हैं।
विज्ञान का मुख्य सिद्धात में पानी कि संज्ञा H2O हैं, अर्थांत पानी में हाइड्रोजन के २ अणु एवं ओक्सीजन के एक अणु होते हैं, एवं ओक्सीजन के माध्यम से प्रायः सभी जीव श्वास के माध्यम से ओक्सीजन लेते हैं। इसी लिये उसे प्राण वायु कहा जाता क्योकि यह हमे जीवीत रखता हैं।
मानव शरीर भी इन पंच महाभूत तत्वो से हि बना हैं, इसमे से कोइ एक तत्व का संतुलन बिगड जाये तो शरीर मे रोग उत्पन्न होजाते हैं, हालांकि सभी पंच तत्वो को एज दूसरे से मिलकर हि प्रभावशाली होते हैं, सभी तत्व यदि अलग-अलग हो तो उनका कोइ महत्व नहीं रह जाता। जल मानव जीवन हेतु अत्यंत आवश्यक तत्व हैं इसी लिये आदिकाल से पृथ्वी कि सारी संस्कृतिया कि उत्पत्ती एवं विकास जल के किनारे हि हुवा हैं।
वास्तु सिद्धांत के अनुशार जल तत्व को भवन निर्माण एवं भवन निवास में हेतु इसके सन्तुलन को ध्यान मे रखना जरूरी हैं।

संवत्सर एवं युगफल

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संवत्सर एवं युगफल

शास्त्र के अनुशार साठ संवत्सरोमें बारह युग होते हैं और एक युग पांच वर्षका होता हैं एवं साठ (60) वर्ष अर्थात् संवत्सरोंमें बारह युग कहे हैं ॥

  1. प्रथम युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य मदिरा मांस प्रेमी करने वाला, सदा पराई स्त्रीमें रत रहने वाला, कवि, कारीगरीकी विद्या जानने वाला और चतुर होता हैं।

  2. दूसरे युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य सर्वदा वाणिज्य कर्ममें व्यवहार करने वाला, धर्मवान्, अच्छे पुरुषोंकी संगति करने वाला, धनका अधिक लोभी और पापी होता हैं।

  3. तीसरे युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य भोगी, दानी, उपकार करने वाला, ब्राह्मण और देवताओं को पूजने वाला तेजवान् और धनवान् होता हैं।

  4. चौथे युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य बाग, खेतकी प्राप्ति करने वाला, औषधीको सेवन करने वाला रोगी और धातुवादमें घननाश करनेवाला होता हैं।

  5. पांचवे युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य पुत्रवान्, धनवान्, इन्द्रियों को जीतने वाला और पिता-माताका प्रिय होता हैं।

  6. छठे युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य सदा नीच शत्रुओं से पीडित, पशु प्रेम, पत्थरसे चोट पाने वाला और भयसे पीडित होता हैं।

  7. सातवें युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य बहुत प्रिय मित्रों युक्त, व्यापार में कपट करने वाला, जल्दी चलने वाला तथा कामी होता हैं।

  8. आठवें युगमें उत्पन्न होनेसे मनुष्य सदा पापकर्म करने वाला, असंतोषी, व्याधि दुःखसे युक्त और दूसरों की हिंसा करने वाला होता हैं।

  9. नवम युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य बावडी, कुंआ तलाब तथा देवदीक्षा और अभ्यागत में रुचि रखने वाला राजा के समान होता हैं। 

  10. दशम युगमें जन्म लेनेसे मनुष्य राज अधिकारी, मंत्री, स्थानप्राप्ति करनेवाला, बहुत सुखी, सुंदर वेष एवं रुपवाला, और दानी होता हैं।

  11. जिसका जन्म ग्यारहवें युगमें हो वह मनुष्य बुद्धिमान्, सुंदर शीलवान्, देवताओं को मानने वाला और युद्धमें निपूर्ण होता हैं।

  12. बारहवें युगमें जन्म लेने वाला मनुष्य तेजस्वी, प्रसन्न चित्तवाला, मनुष्योमें श्रेष्ठ खेती व वाणिज्य कर्म करनेवाला होता हैं।

वास्तु एवं शिलान्यास

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वास्तु एवं शिलान्यास
  • भूमि पर शिलान्यास सर्व प्रथम आग्नेय कोणमें करना शुभ होता हैं।
  • आग्नेय कोणमें में शिलान्यास करने के बाद अन्य सभी निर्माण प्रदक्षिणा क्रमसे (घडि कि दिशा में, (क्लोक वाईज) शुभ माना गया हैं।
  • दक्षिण में गृह निर्माण कि समाप्ति होने से भवन स्वामी के धनका नाश, स्त्री में विकार उत्पन्न होने लगते हैं एवं पुत्र संतान कि आयु क्षीण होती हैं।
  • आकाश में ध्रुव तारे को देखकर अथवा स्मरण कर नींव रखनी अति शुभ होती हैं।
  • मध्याह, मध्य रात्रि तथा सन्ध्या कालमें शिलान्यास हेतु नींव नहीं रखनी चाहिये। मध्याह्ल तथा मध्य रात्रिमें शिलान्यास करनेसे व्यक्ति के धन एवं स्वास्थय का नाश होता हैं।
  • शिलान्यास हेतु चौकोर एवं अखण्ड शिला लेनी शुभ होती हैं। ।
  • अधिक लम्बी,अधिक छोटी, असमान समतल वाली, काले रंग की एवं टूटी-फूटी शिला लेने से अशुभ तथा भय कि प्राप्ति होती हैं ।

एकदन्त शरणागति स्तोत्रम्

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एकदन्त शरणागति स्तोत्रम्

एकदन्तम् शरणम् व्रजाम:

देवर्षय ऊचु:

सदात्मरूपं सकलादिभूतममायिनं सोऽहमचिन्त्यबोधम्।
अनादिमध्यान्तविहीनमेकं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

अनन्तचिद्रूपमयं गणेशमभेदभेदादिविहीनमाद्यम्।
हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

समाधिसंस्थं हृदि योगिनां यं प्रकाशरूपेण विभातमेतम्।
सदा निरालम्बसमाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

स्वबिम्बभावेन विलासयुक्तां प्रत्यक्षमायां विविधस्वरूपाम्।
स्ववीर्यकं तत्र ददाति यो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

त्वदीयवीर्येण समर्थभूतस्वमायया संरचितं च विश्वम्।
तुरीयकं ह्यात्मप्रतीतिसंज्ञं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

त्वदीयसत्ताधरमेकदन्तं गुणेश्वरं यं गुणबोधितारम्।
भजन्तमत्यन्तमजं त्रिसंस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

ततस्त्वया प्रेरितनादकेन सुषुप्तिसंज्ञं रचितं जगद् वै।
समानरूपं ह्युभयत्रसंस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

तदेव विश्वं कृपया प्रभूतं द्विभावमादौ तमसा विभान्तम्।
अनेकरूपं च तथैकभूतं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

ततस्त्वया प्रेरितकेन सृष्टं बभूव सूक्ष्मं जगदेकसंस्थम्।
सुसात्ति्‍‌वकं स्वपन्मनन्तमाद्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

तदेव स्वपन् तपसा गणेश सुसिद्धरूपं विविधं बभूव।
सदैकरूपं कृपया च तेऽद्य तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

त्वदाज्ञया तेन त्वया हृदिस्थं तथा सुसृष्टं जगदंशरूपम्।
विभिन्नजाग्रन्मयमप्रमेयं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

तदेव जाग्रद्रजसा विभातं विलोकितं त्वत्कृपया स्मृतेन।
बभूव भिन्न च सदैकरूपं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

सदेव सृष्टिप्रकृतिस्वभावात्तदन्तरे त्वं च विभासि नित्यम्।
धिय: प्रदाता गणनाथ एकस्तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

त्वदाज्ञया भान्ति ग्रहाश्च सर्वे प्रकाशरूपाणि विभान्ति खे वै।
भ्रमन्ति नित्यं स्वविहारकार्यास्तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

त्वदाज्ञया सृष्टिकरो विधाता त्वदाज्ञया पालक एकविष्णु:।
त्वदाज्ञया संहरको हरोऽपि तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

यदाज्ञया भूमिजलेऽत्र संस्थे यदाज्ञयाप: प्रवहन्ति नद्य:।
स्वतीर्थसंस्थश्च कृत: समुद्रस्तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

यदाज्ञया देवगणा दिविस्था ददन्ति वै कर्मफलानि नित्यम्।
यदाज्ञया शैलगणा: स्थिरा वै तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:।

यदाज्ञया देवगणा दिविस्था ददन्ति वै कर्मफलानि नित्यम्।
यदाज्ञया शैलगणा: स्थिरा वै तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

यदाज्ञया शेषधराधरो वै यदाज्ञया मोहप्रदश्च काम:।
यदाज्ञया कालधरोऽर्यमा च तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

यदाज्ञया वाति विभाति वायुर्यदाज्ञयागि‌र्न्जठरादिसंस्थ:।
यदाज्ञयेदं सचराचरं च तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

यदन्तरे संस्थितमेकदन्तस्तदाज्ञया सर्वमिदं विभाति।
अनन्तरूपं हृदि बोधकं यस्तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

सुयोगिनो योगबलेन साध्यं प्रकुर्वते क: स्तवनेन स्तौति।
अत: प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजाम:॥

गृत्समद उवाच

एवं स्तुत्वा गणेशानं देवा: समुनय: प्रभुम्।
तृष्णीं भावं प्रपद्यैव ननृतुर्हर्षसंयुता:॥

स तानुवाच प्रीतात्मा देवर्षीणां स्तवेन वै।
एकदन्तो महाभागो देवर्षीन् भक्तवत्सल:॥

एकदन्त उवाच

स्तोत्रेणाहं प्रसन्नोऽस्मि सुरा: सर्षिगणा: किल।
वरदोऽहं वृणुत वो दास्यामि मनसीप्सितम्॥

भवत्कृतं मदीयं यत् स्तोत्रं प्रीतिप्रदं च तत्।
भविष्यति न संदेह: सर्वसिद्धिप्रदायकम्॥

यं यमिच्छति तं तं वै दास्यामि स्तोत्रपाठत:।
पुत्रपौत्रादिकं सर्व कलत्रं धनधान्यकम्॥

गजाश्वादिकमत्यन्तं राज्यभोगादिकं ध्रुवम्।
भुक्तिं मुक्तिं च योगं वै लभते शान्तिदायकम्॥

मारणोच्चाटनादीनि राजबन्धादिकं च यत्।
पठतां श्रृण्वतां नृणां भवेच्च बन्धहीनता॥

एकविंशतिवारं य: श्लोकानेवैकविंशतीन्।
पठेच्च हृदि मां स्मृत्वा दिनानि त्वेकविंशतिम्॥

न तस्य दुर्लभं किञ्चत् त्रिषु लोकेषु वै भवेत्।
असाध्यं साध्येन्म‌र्त्य: सर्वत्र विजयी भवेत्॥

नित्यं य: पठति स्तोत्रं ब्रह्मभूत: स वै नर:।
तस्य दर्शनत: सर्वे देवा: पूता भवन्ति च॥
  • प्रतिदिन इस इक्कीस श्लोकों का इक्कीस दिनों तक प्रतिदिन इक्कीस बार पाठ करता हैं उसे सर्वत्र विजय प्राप्त होती हैं।
  • इस स्तोत्र के पाठ से व्यक्ति को सर्व इच्छीत वस्तु कि प्राप्ति होती हैं। पुत्र-पौत्र आदि, कलत्र, धन-धान्य, उत्तम वाहन एवं समस्त भौतिक सुख साधनो एवं शांति कि प्राप्ति होती हैं।
  • अन्य द्वारा किये जाने वाले मारण, उच्चाटन और मोहन आदि प्रयोग से व्यक्ति कि रक्षा होती हैं।

विद्या प्राप्ति के विलक्षन उपाय भाग:3

Vidya Prapti ke Vilakshan Upay (Totke / Totake) (Bhag-3 / Part-3)




विद्या प्राप्ति के विलक्षन उपाय भाग:३

कई बच्चों को घंटो-घंटो पढाई करने के उपरांत भी स्मरण नहीं रहता। परिक्षा में उत्तर देते समय उसने पढा हुआ भूल जाते हैं। एसी स्थिती में बच्चे के साथ माता पिता भी परेशान रहते हैं कि इतना पढने के उपरांत बच्चे को याद नहि रह पाता? इसका कारण काया हैं? और उपाय क्या हैं? यदि बच्चा पढाई नही करता तो अलग बात होजाती हैं, परंतु पढने के पश्चयार भी याद नहीं रहे तो इस मे बच्चा करे तो क्या करें? यह सबसे बडीं समस्या हो जाती हैं।

एसी स्थिती में विद्या प्राप्ति हेतु एवं स्मरण शक्ति बढाने हेतु जो बच्चे +10 से उपर के क्लास में पढते हैं उनके लिये हैं।

प्रयोग 1:
रात्री 8-9 बजे भोजन कर 30-45 मिनिट पश्चयात बायीं (Left) करवट लेकर ढाई घंटे के लिये सोजाये, पुनः दाई (Right) करवट लेकर ढाई घंटे के लिये सोजाये, तत पश्चयात उठकर हाथ मुह धोकर सीधे बैठ कर पढाई शुरु कर दें, एसा नियमित करने से अविश्वसनिय लाभ प्राप्त होता हैं। यह एक अनुभूत प्रयोग हैं


प्रयोग 2:
रात्री 8-9 बजे भोजन कर 30-45 मिनिट पश्चयात सोजाए, रात्री को 2 बजे या 2.30 बजे उठकर हाथ मुह धोकर सीधे बैठ कर पढाई शुरु करदें इस्से अपने आप पढाई में मन लगने लगेगा।


प्रयोग करने से लाभ:
वर्तमान समय में बच्चे दिन से लेकर रात्री 2-3-4 बजे तक पढाई करते रहते हैं, और सुबह 5-6-7 बजें उठ कर फ़िर से पढाई करना शुरु करदेते हैं जिस्से पर्याप्त नींद न मिलने के कारण बच्चें को पढाई बोझ लगने लगती हैं। एवं जितना चाहे पढले बच्चा परिणाम अनूकुल नहीं मिलपाता।

इसका कारण अती सरल हैं। दिन भर कि थकावट के कारण, अपने दैनिक कार्य से विपरित बेठकर पढाई करने के कारण एवं पर्याप्त नींद नहीं मिलने के कारण पढाइ के समय मन नहीं लग पाता। घर में अन्य सदस्यो के आवागमन के कारण बच्चें पढाई में एकाग्रता नहीं होने के कारण भी एक ही विषय को बार-बार लगातार पढते रहना पडता हैं इस मे समय कि खपत अधिक होती हैं, जिस्से बच्चे तनाव सा महसूस करते हैं।

कुछ बच्चे सुबह जल्द उठ कर पढाई करतें हैं एसी स्थिती में सुबह 5-6 बजे पढाई के लिये बेठने पर कुछ समय के लिये एकाग्रता रह पाती हैं पश्चयात घर वालो के जागने पर एकाग्रता कम होने लगती हैं।

इस लिये रात्री 8-9 बजे सोकर 2- 2.30 बजे उठने पर पढाई करने हेतु अधिक समय मिलजाता हैं एवं वातावरण में शांति होने के कारण एकाग्रता लंबे समय तक बनी रहती हैं।

अंगारकी वरदविनायक चतुर्थी- 

Angaraki Varad vinayak chaturthi Vrat गणेश चतुर्थी,

अंगारकी वरद विनायक चतुर्थी- 

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कोर्ट-केश एवं ज्योतिष (भाग:१)

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कोर्ट-केश एवं ज्योतिष (भाग:१)

पोस्ट सौजन्य:  चिंतन जोशि, स्वस्तिक,

आजके युग में कुछ व्यक्ति को न्याय प्राप्त करने हेतु या स्वयं द्वारा किये गये कार्य अथवा अन्य झुठे मामलो के कारन कोर्ट के चक्कर बार-बार लगाने पडते हैं। न्याय प्राप्त होने तक कुछ मामलो में व्यक्ति को महिनो कि जगह सालो लग जाते हैं कोर्ट के चक्कर लगाते लगाते? लेकिन केश खत्म होने का नाम नहीं लेते। एसे में व्यक्ति अनेको प्रकार कि आशंका से ग्रस्त हो कर अशांति से सम्मुखीन हो जाता हैं।
न्याय के नजरिये से देखे तो अक्सर यही सुन्ने में आता हैं, देर सवेर हि सही जीत हमेसा सच्चाई कि हि होती हैं..... क्या यह वाक्य सब पर लागू होते हैं? नहीं ना? कभी कभी कुछ बेगुनाह लोग भी समय कि विवशता के अधिन होकर परेशानी उठाते देखे जाते हैं।
यदि एसे मामलो को बौधिक द्रष्टी कोण से विचार करें तो हमारी मानसिकता कुछ एसी होती हैं कि अगर किसी व्यक्ति को किसी प्रकार का छल या फ़रेब के कारणा न्यायालय से न्याय नही प्राप्त होता, तो ईश्वर शक्तिया अपने द्वारा उसे सजा देती हैं, यह कितना सत्य हैं यह तो सबका अपना अपना एक नजरीया होता हैं। लेकिन वास्तविकता सबके लिये समान हो यह जरुरी नहीं हैं।
वास्तविकता चाहे जो हो ज्योतिष के मूल सिद्धांत के आधार पर गणना कर कोर्ट से संबंधिक सभी प्रकार कि समस्या का उत्तर प्राप्त हो सकता हैं, एवं विभिन्न संस्कृति में मंत्र-यंत्र-तंत्र के प्रयोगो से शीघ्र सफलता प्राप्त करने हेतु अनेको उपाय उपलब्ध हैं।


स्वयं के कोर्ट में जाने का कारण?
  • स्वयं के कोर्ट में जाने का कारण जन्म कुन्डली या प्रश्न कुन्डली में लग्न और लगनेश के स्थान से पता किया जाता है, लगनेश पर
  • जब शुभ या अशुभ ग्रह अपना प्रभाव डाल रहे हों, उसमे से जो ग्रह अपना अशुभ प्रभाव देता हैं, वही कारण स्वयं के न्यायालय में जाने का कारण होता है।

 विरोधि पक्ष कि हार जित का निर्णय?

  • जन्म कुन्डली या प्रश्न कुन्डली में सप्तम स्थान विरोधि पक्ष का होता हैं।
  • यदि कुन्डली मे सप्तम भाव का स्वामी बलवान हो, तो विरोधि पक्ष कि जित होती हैं।
  • यदि कुन्डली मे सप्तम भाव का स्वामी कमजोर हो, तो विरोधि पक्ष को पराजय मिलती हैं।
  • जब सप्तम भाव का स्वामी का प्रभाव जिस राशि एवं ग्रहों पर होता हैं, विरोधि पक्ष उन स्थानो पर अपना अशुभ प्रभाव देता हैं।                                           
(क्रमश: ......)
 
 
अधिक जानकारी हेतु या उपाय जानने हेतु आप हमसे संपर्क कर सकते हैं।



पति-पत्नी में कलह निवारण हेतु

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पति-पत्नी में कलह निवारण हेतु


यदि परिवारों में सुख सुविधा के समस्त साधान होते हुए भी छोटी-छोटी बातो में पति-पत्नी के बिच मे कलह होता रहता हैं, तो निम्न मंत्र का जाप करने से पति-पत्नी के बिचमें शांति का वातावरण बनेगा


मंत्र -
 धं धिं धुम धुर्जते पत्नी वां वीं बूम वाग्धिश्वरि।
क्रं क्रीं क्रूं कालिका देवी शं षीम शूं में शुभम कुरु॥

यदि पत्नी यह प्रयोग कर रही हैं तो पत्नी की जगह पति शब्द का उच्चारण करे

प्रयोग विधि –

  •  प्रातः स्नान इत्यादी से निवृत्त हो कर के दूर्गा या मां काली देवी के चित्र पर लाल पुष्प भेटा कर  धूप-दीप जला के सिद्ध स्फटिक माला से 21 दिन तक 108 बार जाप करे लाभा प्राप्त होता हैं।
  • शीध्र लाभ प्राप्ति हेतु प्रयोग करने से पूर्व मां के मंदिर में अपनी समर्थता के अनुशार अर्थ या वस्त्र भेट करें।
  • लाभ प्राप्ति के पश्चयात माला को जल प्रवाह कर दें।

यदि आप इस  प्रयोग विधि करने में असमर्थ हैं?, तो आप हमसे संपर्क कर अन्य उपाय जान सकते हैं।


गणेश कवचम्

Ganesh Kavacham, Ganesh kawacham

गणेश कवचम्

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः।
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदर: स्वयम्॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तितः।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने॥

ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदावतु॥

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति च संततं पातु लोचनम्।
तालुकं पातु विघनेश: संततं धरणीतले॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति च संततं पातु नासिकाम्।
ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम॥

दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः॥
ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदावतु।

ॐ क्लीं ह्रीं विघन्नाशाय स्वाहा कर्ण सदावतु॥

ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदावतु।
ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदावतु॥

ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्ष:स्थलं च गम्।
करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघन्निघन्कृत्॥

प्राच्यां लम्बोदर: पातु आगनेय्यां विघन्नायकः।
दक्षिणे पातु विघनेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः॥

पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मजः॥
कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च॥

ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्ब: पातु चो‌र्ध्वतः।
अधो गणाधिप: पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः॥

स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरुः।

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम्॥

श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले।
वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मजः॥

मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि।
परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम्॥

गुरुमभ्य‌र्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः॥

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
ग्रहेन्द्रकवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम्।
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायकः॥

॥ इति श्री गणेश कवच संपूर्णम्॥

हस्त रेखा एवं रोग (भाग:1)

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हस्त रेखा एवं रोग (भाग:1)

व्यक्ति कि हथेली में विभिन्न प्रकार कि रेखाऎ, पर्वत एवं उन पर उभर कर आने वाले तरह तरह के चिह्न के बदलाव से व्यक्ति को होने वाली बीमारियों का अंदाजा लगाया जासकता हैं।

हर ग्रह के कुछ निश्चित चिह्न होते हैं। इन चिह्नो का प्रभाव हथेली में ग्रह के पर्वत पर होंने के अनुरुप  शुभ-अशुभ फल कि प्राप्ति होती हैं।

* हमे शक्ति प्रदान करने वाली सूर्य रेखा एवं स्वास्थ्य रेखा सूर्य पवर्त के समीप पाई जाती हैं।

* यदि हथेली में शनि एवं सूर्य का संबंध हो जाए तो व्यक्ति कब्ज से पीडा होती हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में हृदय रेखा कमजोर होती हैं एवं भाग्य रेखा एकदम स्पष्ट हो, आयु रेखा से जुडी हुई कोई रेखा कनिष्ठिका के तीसरे पर्व तक जाती हो, या मंगल पर्वत पर क्रॉस का चिह्न हो, या उभरे हुए चंद्र पर्वत पर झंडे का चिह्न हो तो व्यक्ति बदहजमी, अपच, गैस इत्यादि रोग से पीड़ित होता हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में गोल घेरे का ग्रहों के पर्वतों पर होना शुभ माना गया हैं, लेकिन गोल घेरे का रेखाओं पर होना अत्यंत अशुभ माना गया हैं। यदि गोल घेरे का हृदय रेखा पर होने से व्यक्ति को आंखो कि समस्या हो सकती हैं। मंगल पर्वत पर गोल घेरा होने से भी नेत्र संबंधित पीडा होती देखी गई हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में शनि पर्वत पर या आयु रेखा के अंत में क्रॉस या जालीदार रेखा का होना व्यक्ति को असाध्य रोग होने का संकेत देती हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में स्वास्थ्य रेखा टूटी फूटी हो, या हृदय रेखा और मस्तक रेखा एक दूसरे समीप आ गई हो तो व्यक्ति को श्वास रोग होने की आशंका अधिक रहती हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में आयु रेखा, हृदय रेखा और मस्तक रेखा के अंत में जालीदार रेखाएं हों या पर्वतों पर जालीदार रेखाएं हों, क्रॉस का चिह्न हो, हथेली पर काले या नीले रंग के धब्बे या बिंदु हों, नाखून गहरे नीले रंग के हों, नाखून टूटने वाले हों या अस्वाभाविक आकर के हों, या अंगुलियां मुड़ी हुई हों, या हथेली कि त्वचा नरम हो, हाथ हमेशा भीगा हुआ सा रहता हों, तो व्यक्ति जीवन भर किसी न किसी रोग से पीडित होकर अस्वस्थ रहता हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में आयु रेखा, हृदय रेखा और मस्तक रेखा तीनों एक जगह मिली हुई हो, या अंगुलियों के नाखूनों में खड़ी रेखाए हो, या नखून किनारों से टूटे हुए हों, नाखूनों के मूल पर चन्द्रमा काले रंगके हो या विलुप्त होगये हो, या शनि पर्वत पर जालीदार चिह्न का होना, व्यक्ति को गठिया रोग होने का संकेत देता हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में आयु रेखा पर क्रॉस होना किसी दुर्घटना ग्रस्त होने का संकेत होता हैं।

* आयु रेखा के अंत में काला धब्बा होना गंभीर चोट लगने का सूचक हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में आयु रेखा पर काला बिंदु हो तो यह किसी बड़े रोग की सूचना देता हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में आयु रेखा अंत में दो मुखी हो जाए तो, व्यक्ति को मधुमेह होने का संकेत होता हैं।

* जिस व्यक्ति के हाथ में आयु रेखा चौड़ी हो, या उसका रंग पीला हो, या जंजीरनुमा हो तो व्यक्ति का स्वास्थ्य हर समय खराब रहता हैं।

* आयु रेखा का अचानक टूट जाना व्यक्ति की किसी बीमारी के कारभ अचनाक मृत्यु का संकेत माना गया हैं।

आईना एवं वास्तु

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आईना एवं वास्तु

  • आईने से हर समय एक प्रकार कि ऊर्जा निकल कर बाहार आती रहती हैं। इस उर्जा का प्रभाव दिशा कि अनुरुप सकारात्मक एवं नाकारात्मक दोनो हो सकते हैं। अतः घर मे आइना सही स्थान का चुनाव कर लगाये ।

  • यदि उचित स्थान पर आईना लगा हो, तो घर कि नकारात्मक उर्जा दूर होकर घर में सकारात्मक उर्जा का आगमन होता हैं। और गलत स्थान पर आईना लगा होतो घर में नकारात्मक उर्जा के प्रवेश से अनेक प्रकार कि समस्याए होसकती हैं।

  • वास्तु सिद्धान्त के अनुशार शयन कक्ष में आईना लगाना वर्जित हैं। क्योकिं पलंग के सम्मुख आईना लगाने से पति-पत्नी के आपसी संबंधों में तनाव हो सकता हैं, एवं पत्नी के स्वास्थ्य में भी गिरावट आ सकती हैं। यदि शयन कक्ष मे आईना आवश्यक हो तो सोते समय आईने के नकारात्मक प्रभाव को कम करने हेतु आईने को ढककर या उसे आलमारी के अंदर की ओर लगवाए।

  • एक और मत हैं कि यदि शयन कक्ष के आईने में दंपति का प्रतिबिंब दिखाई दे तो दोनो के बिच मे तीसरा व्यक्ति आता हैं, और पति या पत्नी के अन्य स्त्री-पुरुष के साथमें सम्पर्क स्थापीत होने कि प्रबल संभावना बनी रहती हैं

  • ड्रेसिंग टेबल पर यदि आईना रखना होतो उसे रुम के पूर्व या उत्तर में इस प्रकार लगाये जिस्से बाल सवारते समय बाल दक्षिण या पश्चिम दिशा कि और गिरे। यदि बाल सवारते समय बाल पूर्व या उत्तर में गिरे तो स्त्री वर्ग के लिये अधिक अनिष्ट कारी होता हैं, और परिवार में विभिन्न रोग उत्पन्न होते देखे गये हैं।

  • कभी भी घर में दो आइने आमने-सामने नहीं लगाने चाहिये इस्से परेशानी बढती रहती हैं।

  • बच्चे कि पढाई करने वाली मेज(टेबल) पर आईना नहीं रखना चहीये, पढाई करने वाली मेज(टेबल) पर शीशा रखने से मानसिक अशांति होती हैं। पढाई मे मन नहीं लगता।

  • व्यवसायिक प्रतिष्ठान या ऒफिस में भी आइने का प्रयोग उचित दिशा मे और कम से कम मात्रा में प्रयोग करे, जिस्से व्यवसायिक प्रतिष्ठान या ऒफिस का वातावरण सकारात्मक उर्जा से प्रवाहित रहें।